Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कर लेता है, अनुपम सुखों को खो देता है और इसके विपरीत उसके लघु भ्राता पुंडरीक का अनुकरण करने वाला व्यक्ति निर्बाध गति से मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। साधना-पथ पर गतिशील साधक के लिए ये दोनों उदाहरण सर्चलाइट की तरह उपयोगी हैं 1
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कुंडरीक और पुंडरीक दोनों सगे भाई थे । कुण्डरीक बड़ा भाई होने के कारण राज्य का मालिक था। परन्तु मुनि के सदुपदेश से राज्य का त्याग करके वह साधु बन गया और निरन्तर एक हज़ार वर्ष तक साधना करता रहा । परन्तु जीवन के अन्तिम दिनों में वह परीषहों एवं वासना से परास्त हो गया । अपने लघु भ्राता पुण्डरीक को राज्य का सुख भोगते देखकर उसका मन भी उस ओर लुढ़क गया। वह अपने को.. संभाल नहीं सका। अतः उसने अपनी अभिलाषा पुण्डरीक के सामने व्यक्त कर दी । पुण्डरीक को भाई के विचार सुनकर अति वेदना हुई और उसने धर्म एवं शासन की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए अपने ज्येष्ठ भ्राता को उस का राज्य सौंपकर, उसके स्थान में उन्होंने दीक्षा ग्रहणकर ली और तप साधना में संलग्न हो गए।
कुंडरीक प्रकाम भोजन एवं भोगों में आसक्त हो गया और पुंडरीक तप करने लगा तथा रूखा-सूखा जैसा भी आहार मिल गया उसी पर संतोष करके संयम साधना में संलग्न हो गया। परिणाम यह निकला कि कुण्डरीक की तपस्या से निर्बल बनी हुई आंतें प्रकाम भोजन को पचा नहीं सकीं और दुर्बल शरीर अधिक भोगों की मार को सह नहीं सका, इससे उसे असाध्य रोग हो गया और वह भोगों की आसक्ति में तड़पता हुआ मर गया। उधर पुंडरीक को भी अपने स्वास्थ्य के अनुकूल भोजन नहीं मिलने से वह भी अस्वस्थ हो गया । परन्तु ऐसी स्थिति में भी वह अपने पथ से भ्रष्ट नहीं हुआ। समभाव पूर्वक वेदना को सहते हुए अनशन करके पंडित मरण को प्राप्त हुआ।
इस प्रकार संयम त्यागने एवं संयम स्वीकार करने के थोड़े ही समय बाद दोनों भाइयों ने देह का त्याग कर दिया और दोनों ने उपपात योनि में जन्म लिया और 33 सागरोपम की स्थिति को प्राप्त किया । योनि और स्थिति समान होते हुए भी दोनों की गति में बहुत बड़ा अंतर था । पुंडरीक ने अल्पकालीन साधना से सर्वार्थसिद्ध विमान को प्राप्त किया, तो कुंडरीक ने भोगों में आसक्त होकर सातवीं नरक के अंधकार में जन्म लिया ।