Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 2 मूलम्-विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ॥75॥
छाया-विमुक्ताः खलु ते जनाः ये जनाः पारगामिनो, लोभमलोभेन जुगुप्समानो लब्धान् कामान् नाभिगाहते।
पदार्थ-विमुत्ता-विभिन्न बन्धनों से मुक्त-उन्मुक्त। हु-निश्चय ही। ते-वे। जणा-जन। जे जणा पारगामिणो-पार जाने की इच्छा करते हैं, वे व्यक्ति। लोभ-लोभ को। अलोभेण-निर्लोभता से। दुगुंछमाणे-तिरस्कृत करते हुए। लद्धे कामे-प्राप्त काम-भोगों का भी नाभिगाहइ-आसेवन नहीं करते।
मूलार्थ-सांसारिक बन्धनों से उन्मुक्त साधक लोभ को अलोभ पराभूत करके प्राप्त काम-भोगों का भी आसेवन नहीं करता है। हिन्दी-विवेचन .
. जैन संस्कृति में त्याग को महत्त्व दिया गया है, न कि वेष-भूषा को। यह ठीक है कि द्रव्य-वेष का भी महत्त्व है, परन्तु त्याग-वैराग्य युक्त भावना के साथ ही उस का मूल्य है। भाव शून्य वेषधारी साधक को, पथ भ्रष्ट कहा गया है। जो साधक त्याग-वैराग्य की भावना को त्याग कर रात-दिन खाने-पीने, सोने एवं विलास में व्यस्त रहता है, उसे पापी श्रमण कहा गया है।
• प्रस्तुत सूत्र में त्यागी की परिभाषा बहुत ही सुन्दर की गई है। वह व्यक्ति त्यागी नहीं माना गया है, जिसके पास वस्तु का अभाव है, क्योंकि उसका मन अभी भी उसमें रम रहा है। जिसे वस्त्र, सुगंधित पदार्थ, अलंकार, स्त्री, शय्या-घर आदि स्वतन्त्र रूप से प्राप्त नहीं हैं, पर उनकी वासना उसके मन में रही हुई है; तो वह भगवान महावीर की भाषा में त्यागी नहीं है। त्यागी वही है, जिसे सुन्दर भोग-विलास एवं भौतिक सुख-साधन प्राप्त हैं और जो उनका भोग करने में भी स्वतन्त्र एवं समर्थ है;
1. देखें उत्तराध्ययन, अध्ययन 17 2. वत्थ-गंधमलंकारं इथिओ सयणाणि य॥
अच्छंदा जे न भुजंति, न से चाई त्ति वुच्चई॥
-दशवैकालिक 2, 2