Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार : 1
दुःख की हो; आज है कल चली जाएगी। इस रूप में देखेंगे तब राग-द्वेष नहीं होगा और इस विदेह भावना का, इन सबसे अलग होने की भावना का उदय तब होता है, जब कर्मों का क्षयोपशम होता है । कर्मों का क्षयोपशम होता है, साम्य भाव की साधना से, आत्मदर्शन की साधना से ।
परिस्थिति का अर्थ है जो आती है-जाती है । आज है कल चली जाएगी, अधिक से अधिक जीवन भर रहेगी। अगर इस रूप में देखोगे, तब राग-द्वेष नहीं आएगा और यह विदेह भावना सबसे अलग होने की भावना का उदय होता है, कर्मों के क्षयोपशम
द्वारा ।
'आयट्ठ' का अर्थ होता है, आत्मा का अर्थ, यानी जो आत्मा का मूल स्वरूप है, उस स्वरूप प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना चाहिए । आत्मस्वरूप को जान लो आपको आगमों में ऐसा नहीं मिलेगा । 'आयट्ठ' शब्द इस अर्थ का बोधक है । उस समय 'आयट्ठ' कहने से लोग समझ जाते थे। आज उसे ही स्वरूप बोध कहते हैं ।
आयट्ठ-आत्मा के अर्थ को जानना जिससे आत्मा का अर्थ सिद्ध हो जाए, वह करो। एक अपेक्षा से 'आयट्ठ' का अर्थ होता है हेतु क्या है। प्रत्येक आत्मा का हेतु क्या है, वह क्या चाहती है। सभी नित्य सुख और जीवन चाहते हैं । सुख क्यों चाहते हैं? क्योंकि वह आत्मा की स्वाभाविक रुचि है । उसका मूल हेतु है कि मुझे सुख चाहिए। लेकिन उसे पता नहीं है कि सच्चा सुख कैसे मिले। वह सुख - दुःख में भटकता रहता है। जो क्षणिक सुख अथवा सुखाभास है, उसके मिलने पर उसे लगता है, सच्चा सुख मिलता है । हेतु अभी तक सिद्ध नहीं हुआ, लेकिन उसे लगता है कि हो गया । वह बाह्य सुख साता की परिस्थिति को आन्तरिक सुख मान लेता है; क्योंकि उसने सच्चे सुख का अनुभव नहीं किया। जब उसे किसी ऐसे संत का मिलन होता है जो आत्मसुख से भरपूर है, तब उसे पता चलता है कि सच्चा सुख तो कुछ और ही है। यह सूक्ष्म दृष्टि साधना से ही आती है । जब उसे यह पता लगता है कि मेरा हेतु अभी तक सधा नहीं, फिर वह पुरुषार्थ करता है 1
मूलम् -खणं जाणाहि पंडिए ॥1/2/71
मूलार्थ - हे पंडित ! तू साधना के समय को जान-पहचान ।