Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
304
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध क्षण, अर्थात् धर्म साधना हेतु प्राप्त हुआ सुयोग्य अवसर। चूँकि यहाँ पर धर्म के क्षेत्र में इसका प्रयोग हुआ है, अतः धर्म साधना हेतु सुयोग्य अवसर जैसे भगवान महावीर गौतम स्वामी से कहते हैं कि 'समयं गोयम मा पमायए' हे गौतम। समय मात्र का प्रमाद मत करो, क्योंकि तीर्थंकर स्वयं उपस्थित हैं, तीर्थंकर के जानने के बाद सद्धर्म को पहचानना मुश्किल हो जाएगा। अतः जब तक सुयोग्य अवसर है, अप्रमत्त होकर साधना करो। __ पण्डित-अर्थात् जो पण्डा से युक्त है। पण्डा-अर्थात् प्रज्ञा सम्यक् ज्ञान विवेक से जो युक्त है, उसे पंडित कहते हैं। ऐसे पण्डित को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि तुम अपनी पण्डा के द्वारा क्षण को जानो और एक क्षण में सम्यक् पूर्वक आत्मउपयोग में लगाओ। किसी भी कार्य की सिद्धि पाँच समवाय से होती है। या तो ऐसे भी कह सकते हैं द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव परिपक्व होने पर कार्य-सिद्धि होती है।
सुयोग्य अवसर का अर्थ-धर्म साधना हेतु काल, स्वभाव, पूर्व कर्म का उदय और नियति अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये चारों ही परिपक्व हैं, धर्म साधना हेतु योग्य हैं, अब जीव के सविशेष उपयोगपूर्वक प्रयत्न की आवश्यकता है। दूसरा अर्थ जैसे अनेक लोग करते हैं। न भूतकाल की याद करो, न भविष्य की कल्पना, लेकिन वर्तमान में स्थिर हो जाओ, इस सूत्र का यह भी अर्थ हो सकता है जो पंडित हैं वे भूतकाल की यादों में नहीं खोते और न भविष्य की ही कपोल कल्पनाओं में खोते हैं, अपितु वर्तमान में साधना करते हैं। भूतकाल को भूलने का अर्थ यह नहीं है कि आलोचना और पश्चात्ताप भी नहीं करना। आलोचना और प्रायश्चित्त करना जरूरी है, लेकिन भूतकाल को याद कर शोक नहीं करते। लेकिन भूत एवं भविष्य के संबंध में राग-द्वेष आर्त एवं रौद्र ध्यान नहीं करना। भविष्य के बारे में दीर्घ-दृष्टि से सोचना एवं योग्य अवसर देखना भी जरूरी है। यहाँ जो अर्थ-गर्भित है, वह है भूत एवं भविष्य में उलझने से व्यर्थ का ऊहापोह होता है। अतः इसमें उलझने की अपेक्षा जो भी सुयोग्य क्षण तुम्हारे पास मौजूद है, उसका सम्यक् उपयोग कर साधना करो।
मूलम् -जाव सोयपरिण्णाणा अपरिहीणा, नेत्तपरिण्णाणा, अपरिहीणा, घाणपरिण्णाणा अपरिहीणा, जीहपरिण्णाणा अपरिहीणा, फरिसपरिण्णाणा अपरिहीणा इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं