Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पदार्थ - पंडिए - हे पंडित ! आत्मज्ञानी ! खणं - समय को । जाणाहि
जान-पहचान ।
290
मूलार्थ - पंडित ! तू साधना के समय को जान-पहचान ।
हिन्दी - विवेचन
समय की गति बड़ी तेज है। समय प्रकाश, शब्द और विद्युत से भी अधिक तीव्र गति से भागता है। शब्द और विद्युत को आज हम पकड़ कर भी रख सकते हैं, परन्तु समय हमारी पकड़ से बाहर है। बीता हुआ समय कभी भी लौटाकर नहीं लाया जा सकता। इसीलिए आगम में कहा गया है कि द्रुतगति से भागने वाले समय को जानकर साधक को उसे सफल बनाने में सदा सावधान रहना चाहिए। क्योंकि ऐसा सुअवसर बार-बार मिलना कठिन है।
'क्षण' शब्द का अर्थ है - अवसर या समय। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार प्रकार का है। मनुष्य जन्म, स्वस्थ शरीर, सशक्त इन्द्रियाँ आदि की प्राप्ति द्रव्य क्षण है । आर्यक्षेत्र, आर्यकुल और आर्यधर्म की प्राप्ति क्षेत्रक्षण है । उत्सर्पिणी: और अवसर्पिणी काल के वे आरे जिनमें धर्म की साधना की जा सके- जैसे अवसर्पिणी काल का तृतीय, चतुर्थ और पंचम आरा तथा महाविदेह क्षेत्र का सभी काल, कालक्षण है। क्षयोपशम आदि भाव की प्राप्ति भावक्षण है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म-साधना में सहायक साधन क्षण है और ऐसे समय को प्राप्त करके साधक को साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि समय को जानने वाला व्यक्ति ही पंडित है । अतः साधक को चाहिए कि प्राप्त क्षणों को प्रमाद में नष्ट न करे। इस बात को उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - जाव सोयपरिण्णाणा अपरिहीणा, नेत्तपरिण्णाणा अपरिहीणा, घाणपरिण्णाणा अपरिहीणा, जीहपरिण्णाणा अपरिहीणा, फरिसपरिण्णाणा अपरिहीणा इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयंट्ठ सम्मं समणुवासिज्जासि । त्ति बेमि ॥ 7 ॥
छाया-यावत् श्रोत्रपरिज्ञानानि अपरिहीनानि, नेत्रपरिज्ञानानि अपरिहीनानि,