Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
291
घ्राणपरिज्ञानानि अपरिहीनानि, जिह्वा परिज्ञानानि अपरिहीनानि, स्पर्शपरिज्ञानानि अपरिहीनानि इत्येतैः विरूपरूपैः प्रज्ञानैः अपरिहानैः आत्मार्थं सम्यक् समनुवासयेत्। इति ब्रवीमि।
पदार्थ-जाव-जब तक। सोयपरिण्णाणा-श्रोत्र विज्ञान। अपरिहीणा-हीन नहीं हुआ। नेत्त परिण्णाणा-नेत्र विज्ञान। अपरिहीणा-हीन नहीं हुआ। घाणपरिण्णाणा-नासिका विज्ञान। अपरिहीणा-हीन नहीं हुआ। जीहपरिण्णाणारसना का परिज्ञान। अपरिहीणा-हीन नहीं हुआ। फरिसपरिण्णाणा-स्पर्श विज्ञान। अपरिहीणा-हीन नहीं हुआ। इच्चेएहिं-ये सब। विरूवरूवेहिं-विविध रूप वाले। पण्णाणेहि-प्रकृष्ट ज्ञान। अपरिहीणेहिं-हीन नहीं हुआ, अर्थात् इनकी शवित क्षीण नहीं हुई। आयलैं-आत्मा के लिए आत्महित के लिए। सम्म-सम्यक्तया। समणुवासिज्जासि-प्रयत्न करे। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-जब लक श्रोत्र विज्ञान हीन नहीं हुआ, चक्षु विज्ञान हीन नहीं हुआ, घ्राण विज्ञान हीन नहीं हुआ, जिह्वां विज्ञान हीन नहीं हुआ, स्पर्शेन्द्रिय विज्ञान हीन नहीं हुआ, इस प्रकार ये सब विविध रूप वाले विशिष्ट विज्ञानों का जब तक ह्रास नहीं हुआ है, तब तक साधक को सम्यक्तया आत्मा के हित में निवास करना चाहिए, अर्थात् आत्माहित के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूँ। हिन्दी-विवेचन - हम यह देख चुके हैं कि व्यक्ति शरीर एवं इन्द्रियों की स्वस्थता तथा सशक्त अवस्था में ही साधना कर सकता है। चक्षु आदि इन्द्रियों की शक्ति निर्बल हो जाने के बाद वह भली-भांति साधना मार्ग में प्रवृत्त नहीं हो सकता। न वह अपना आत्महित ही साध सकता है और न ठीक तरह से प्राणियों की रक्षा ही कर सकता है। इसलिए शरीर एवं इन्द्रियों की स्वस्थता के रहते ही साधक को आत्मसाधना में संलग्न हो जाना चाहिए। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है।
_ 'आयटुं' पद का अर्थ आत्मार्थ है। प्रस्तुत प्रकरण में आत्मार्थ से आत्मा की वास्तविक निधि ज्ञान, दर्शन, चारित्र लिए गए है। क्योंकि उक्त त्रयरत्न की सम्यग् आराधना से ही मोक्ष रूप साध्य की सिद्धि हो सकती है और यही साधक का मूल