Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध सुख मान लेता है। जैसे किसी कुत्ते को भूख लगी है और रोटी के अभाव में वह सूखी हड्डी को चबाये तो उसकी भूख तो मिटती नहीं, लेकिन अपने ही खून के स्वाद से उसके मन में यह आशा एवं अपेक्षा जगती है कि इससे मेरी भूख अवश्य मिटेगी। वस्तुतः सूखी हड्डी को चबाना दुःख है, लेकिन किसी उपयुक्त एवं यथार्थ भोजन के अभाव में उसे वह सूखी हड्डी ही सुख रूप पेट भरने का साधन लगती है।
सुख का अनुभव मुख्य रूप से किसी स्थान विशेष में होता है और साधारण रूप से सम्पूर्ण शरीर में सभी आत्म-प्रदेशों में एक साथ होता है। जैसे आँख पर किसी रूप का आघात हुआ तब मुख्य रूप से आँख पर असर होगा। साधारण रूप से सम्पूर्ण शरीर पर असर होगा। इस असर को इन्द्रियों के विषय को, पूरे शरीर में फैल जाने को हम संवेदना कहते हैं। संवेदना मुख्य रूप से किसी स्थान विशेष में और साधारण रूप से सम्पूर्ण शरीर में एक साथ अनुभव में आती है।
पात्र एवं बर्तन-साधुजनों के लिए भगवान महावीर ने तीन प्रकार के पात्र बताएं-1. लकड़ी का, 2. मिट्टी का, 3. तुम्बे का।
प्लास्टिक अशुद्ध वस्तु है, उससे काँच ठीक है। पहले लोग वार्निश के बजाए पात्र को सरसों के तेल में भिगोकर रखते थे। आठ-दस दिन, तेल पी हुई लकड़ी को सुखाते थे, फिर पानी या वस्त्र से साफ करके प्रयोग में लेते थे।
गृहस्थ के लिए सबसे उत्तम सुवर्ण, फिर रजत, फिर कांस्य, फिर तांबा एवं पीतल, फिर लोहा। पर लोहे के बजाय मिट्टी अच्छी है। मिट्टी सुवर्ण के समान ही उत्तम है। किसी अपेक्षा से सुवर्ण से भी मिट्टी अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि मिट्टी सत्त्व के अधिक नजदीक है। भगवान ने कहा था कि लोग लोहे के पात्र में खाएंगे और इस प्रकार से आहार करने से लोग राजसिक होंगे।
प्राणी-विकलेन्द्रिय जीवों को प्राणी कहा जाता है, क्योंकि वह प्राणों के धारक हैं, परन्तु वह हमारे शरीर को प्रत्यक्ष रूप से सत्त्व प्रदान नहीं करते हैं। .
भूत-वनस्पतिकाय को भूत कहते हैं, क्योंकि वह सभी जीवों के लिए आधार-रूप है। वह सभी जीवों का भूत-काल है और सभी में दीर्घलोक है।
जीव-पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य में जीव का पूर्ण विकास दृष्टिगोचर होता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच एवं मनुष्य को जीव कहा जाता है।