Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 7 एक ओर जीवन का यह पहलू है, तो दूसरी ओर जिनके जीवन में ज्ञान का प्रकाश जगमगा रहा है-दया का, अहिंसा का शीतल झरना बह रहा है, वहां जीवन का दूसरा चित्र भी है। या यों कहना चाहिए कि एक ओर जहां अपने जीवन के लिए, अपने स्वार्थ के लिए दूसरे प्राणियों की रक्षा के लिए तत्पर रहता है और यहां तक कि उनकी रक्षा के लिए अपने प्राण तक दे देता है, परन्तु अपने जीवन के लिए वायुकाय आदि किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता। ___दया, रक्षा एवं अहिंसा की यह पराकाष्ठा जैन शासन में ही है, अन्यत्र नहीं। 'इह' शब्द दया एवं अहिंसा-प्रधान जैनधर्म का परिबोधक है। 'संतिगया' शब्द1. प्रशम, 2. संवेग, 3. निर्वेद, 4. अनुकम्पा और 5. आस्तिक्य को अभिव्यक्त करने वाले सम्यग दर्शन, ज्ञान और चारित्र के रूप में प्रयुक्त हुआ है और सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्र का समन्वय ही मोक्ष रूप पूर्ण आनन्द या शान्ति का मूल कारण है, इसलिए इस आध्यात्मिक त्रिवेणी संगम को शान्ति कहा है। ऐसे शांत या मोक्ष मार्ग पर गतिशील साधकों को 'संतिगया-शांतिगताः' कहा है।
'दविया-द्रविका' का अर्थ-'द्रविका नाम रागद्वेषविनिर्मुक्ताः ', अर्थात् राग-द्वेष से उन्मुक्त भव्य आत्मा को द्रविक कहते हैं। 17 प्रकार के संयम का नाम द्रव है क्योंकि, संयम-साधना से कर्म की कठोरता को द्रवीभूत कर दिया जाता है। इसलिए संयम को द्रव कहा गया है और उक्त संयम को स्वीकार करने वाले मुमुक्षु पुरुष को द्रविक कहते हैं। ..
इस तरह प्रस्तुत सूत्र का अर्थ हुआ-सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना से परम शांति को प्राप्त महापुरुष वायुकायिक जीवों की हिंसा करके अपने जीवन को टिकाए रखने की आकांक्षा नहीं रखते। तात्पर्य यह निकला कि उन्हें अपने जीवन की अपेक्षा दूसरे के जीवन का अधिक ध्यान रहता है। इसलिए वे अपने सुख के लिए, अपने स्वार्थ के हेतु या अपने जीवन को बनाए रखने की अभिलाषा से दूसरे प्राणियों के सुख, हित, स्वार्थ एवं जीवन पर हाथ साफ नहीं करते। क्योंकि, अपनी आत्मा के समान ही जगत के अन्य जीवों की आत्मा है। अतः अपने स्वार्थ के लिए वे दूसरों की हिंसा की आकांक्षा नहीं रखते हुए, प्राणिजगत पर दया, उनकी रक्षा एवं उन पर