Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : लोकविजय
प्रथम उद्देशक
आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में सामान्यतः जीव के अस्तित्व का, आत्मा और कर्म के सम्बन्ध का वर्णन किया गया है तथा पृथ्वी, जल आदि अव्यक्त चेतना वाले जीवों की सजीवता को स्पष्ट प्रमाणित करके यह बताया गया है कि षट्काय का आरम्भ-समारम्भ करने से कर्म का बन्ध होता है और फलस्वरूप संसार-परिभ्रमण एवं दुःख-परम्परा का प्रवाह बढ़ता है। इसलिए इस बात पर बल दिया गया है कि मुमुक्षु को आरम्भ-समारम्भ से निवृत्त होना चाहिए; क्योंकि आरम्भ समारम्भ से सर्वथा निवृत्त होने पर ही साधक मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। यदि एक शब्द में कहें तो प्रथम अध्ययन में साधना के मूलभूत अंग अहिंसा का सूक्ष्म, विस्तृत एवं यथार्थ विवेचन किया गया है। •
__ आध्यात्मिक साधना में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अहिंसा आत्मा का स्वाभाविक गुण है, साधना का मूल केन्द्र है। सभी धार्मिक अनुष्ठान इसी से जीवन पाते हैं; इसी के आधार पर पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होते हैं। अहिंसा के अभाव में कोई भी साधना जीवित नहीं रह सकती और न संयम में ही तेजस्विता रहती है। इसलिए जैन संस्कृति के उन्नायकों ने इसे साधना में सर्वप्रथम स्थान दिया है। पंच महाव्रतों में पीछे के चारों महाव्रत अहिंसा से संबद्ध हैं। जिस साधक के जीवन में अहिंसा का, दया का, अनुकम्पा का, साम्यभाव का झरना नहीं बह रहा है, वहां सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का विकास होना भी असंभव है। अहिंसा के शीतल, सरस एवं मधुर जल से अभिसिंचित होकर ही साधना का वृक्ष हरा-भरा रह सकता हैं, पल्लवित-पुष्पित हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि अहिंसा साधना का प्राण है। सूत्रकार के शब्दों में स्पष्ट ध्वनित होता है कि “जो षट्काय के आरम्भ से सर्वथा निवृत्त होता है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा है, अन्य नहीं"। . अहिंसा की साधना के लिए जीवों का परिज्ञान होना ज़रूरी है। इस अपेक्षा से