Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
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योऽर्थ स सन्निधिस्तस्य सन्निचयः प्राचुर्य्यम् उपभोग्यद्रव्यनिचय इत्यर्थः” अर्थात् भोगोपभोग के लिए विभिन्न पदार्थों एवं धन-वैभव का अत्यधिक संग्रह करना। ___परन्तु यह स्पष्ट है कि रोग के आने पर न तो वह द्रव्य ही उसे असातावेदनीय कर्म या दुःख की संवेदना से बचा सकता है और न उसका संरक्षक ही उसे असाता वेदनीय कर्म या दुःख की संवेदना से बचा सकता है और न उसका संरक्षक ही उसे बचा सकता है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को धन-वैभव के संग्रह में आसक्त न होकर समभाव पूर्वक वेदनीयकर्म के उदय से प्राप्त कष्ट को सहन करके, उक्त कर्म को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए जिसे यह दुःख एवं वेदना प्राप्त हुई है। रोग आदि दुःख एवं वेदना के समय किस तरह समभाव रखना चाहिए, इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं॥6॥
छाया-ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् । .: पदार्थ-पत्तेयं-प्रत्येक प्राणी के। सायं-सुख और। दुक्खं-दुःख को। जाणित्तु-जानकर; प्रतिकूल परिस्थितियों में मनुष्य को धैर्य रखना चाहिए।
मूलार्थ-प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख को जानकर मनुष्य को अपने ऊपर आए हुए रोगादि कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। हिन्दी-विवेचन
_सुख और दुःख दोनों एक ही वृक्ष के फल हैं। वह वृक्ष है-वेदनीय कर्म। यह प्रश्न हो सकता है कि एक ही पेड़ के दो विपरीत गुण वाले फल कैसे हो सकते हैं? इसमें आश्चर्य जैसी बात नहीं है। वेदनीय कर्म रूपी वृक्ष की दो शाखाएं हैं-एक शुभ
और दूसरी अशुभ और उन दोनों शाखाओं से उभय रूप फल प्राप्त होते हैं, जबकि दोनों का मूल वेदनीय कर्म एक ही है। हम देखते हैं कि कई ऐसे वृक्ष हैं, जिन पर अनेक प्रकार के फल लगते हैं, विभिन्न रंगों के पुष्प खिलते हैं। आज वैज्ञानिकों ने इस बात को स्पष्ट दिखा दिया है। जापान में एक ही वृक्ष पर 27 प्रकार के फलों की कलमें लगाई गईं और यह प्रयोग सफल भी रहा है, अर्थात् उस वृक्ष से 27 प्रकार के