Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
सहायता के बिना ही मर्यादित क्षेत्र में स्थित रूपी पदार्थों एवं सन्नी पंचेन्द्रिय के मनोगत भावों को जान देख लेता है। जब व्यक्ति अपनी आत्मा पर आच्छादित ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय कर देता है, तो फिर वह संसार के समस्त पदार्थों को और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को अपने आत्मज्ञान से स्पष्ट देखने-जानने लगता है। इन्द्रियों का अस्तित्व रहते हुए भी उसे उनके सहयोग की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती। इससे स्पष्ट हो गया कि इन्द्रियों का सहयोग मति और श्रुतज्ञान तक ही अपेक्षित है और ये इन्द्रियां जानने के साधन मात्र हैं
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इन्द्रियां पांच मानी गई हैं-1. श्रोत, 2. चक्षु, 3. प्राण, 4. रसना और 5. स्पर्श इन्द्रिय | द्रव्य और भाव इन्द्रिय की अपेक्षा से प्रत्येक इन्द्रिय के दो-दो भेद किए गए हैं । द्रव्येन्द्रिय निवृत्ति और उपकरण रूप से है तथा भाव इन्द्रिय लब्धि और उपयोग रूप से है । इन्द्रियों के बाह्य आकार को द्रव्य इन्द्रिय कहते हैं और उसके अन्दर देखने, सुनने, सूंघने आदि की जो शक्ति है, उसे भाव इन्द्रिय कहते हैं, वह लब्धि एवं उपयोग रूप में रहती है। उसके होने पर ही आत्मा इन द्रव्येन्द्रियों से पदार्थों का ज्ञान करती है । भाव इन्द्रिय के अभाव में द्रव्येन्द्रिय कोई कार्य नहीं कर सकती। आंख और कान का आकार तो बना हुआ है, परन्तु उसके साथ भाव इन्द्रिय नहीं है या लब्धि एवं उपयोग आवृत हो गया है, तो उस आंख एवं कान के आकार से न देखा जा सकता है और न सुना जा सकता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रियों की पटुता एवं मूढ़ता क्षयोपशम के आधार पर स्थित है।
यह स्पष्ट है कि इन्द्रियां जड़ हैं। जड़ होने के कारण शरीर के साथ-साथ इनमें भी परिवर्तन आता है। वृद्धावस्था में शरीर के साथ ये भी जीर्ण हो जाती हैं और चेतना के निकलने के बाद निष्प्राण शरीर की तरह इनका भी कोई मूल्य नहीं रह जाता है । अतः समय साथ इनमें भी परिवर्तन आता है, इनकी शक्ति भी क्षीण होती है । परन्तु इतना अवश्य है कि यदि ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अधिक है, तो उसकी इन्द्रिय जीर्ण होने पर भी पदार्थों का बोध करने में पटु ही रहेगी और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम कम है तो युवा काल में भी उनकी ग्रहण शक्ति कमजोर दिखाई देगी। हम देखते हैं कि बहुत से वृद्ध व्यक्ति बिना ऐनक लगाए. ही
1. पन्नवणा, पद 15, उ. 1-2 और तत्त्वार्थ सूत्र, 2, 16-18