Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1 छाया-श्रोत्रपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, चक्षु परिज्ञानैः परिहीयमानैः घाणपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, रसनापरिज्ञानैः परिहीयमानैः, स्पर्शपरिज्ञानैः परिहीयमानः, अभिक्रान्तं च खलु वयः सम्प्रेक्ष्य ततः (सः) तस्य एकदामूढ-भावं जनयति। ___ पदार्थ-सोयपरिण्णाणेहि-श्रोत्र परिज्ञान के। परिहायमाणेहि-सर्वतः हीन होने पर। चक्खुपरिण्णाणेहिं-चक्षु परिज्ञान के। परिहायमाणेहिं-हीन होने पर। घाणपरिण्णाणेहिं-घ्राण परिज्ञान के। परिहायमाणेहिं-हीन होने पर। रसणापरिण्णाणेहिं-रस परिज्ञान के। परिहायमाणेहिं-हीन होने पर। फासपरिण्णाणेहिंस्पर्श परिज्ञान के। परिहायमाणेहिं-हीन होने पर। च-और। खलु-निश्चय ही। वयं-यौवन वय। अभिकंतं-अभिक्रान्त हो गया-बीत गया है, तब फिर। संपेहाए-विचार कर देखा जाए तो। से-वह प्राणी। तओ-तत्पश्चात्- इन्द्रिय परिज्ञान के हीन हो जाने तथा यौवन वय के निकल जाने से। एगदा-वृद्धावस्था में प्रविष्ट होने पर। मूढ भावं-मूढ़ भाव को। जणयति-प्राप्त होता है। ___मूलार्थ-सदा पाप कार्यों में प्रवृत्तमान जीव श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्श इन्द्रिय जन्य परिज्ञान के हीन हो जाने तथा यौवनवय के व्यतीत हो जाने पर एवं वृद्धावस्था में प्रविष्ट होते ही मूढ़ भाव को प्राप्त हो जाता है। हिन्दी-विवेचन
— जीवन जन्म और मृत्यु का समन्वित रूप है। अपने कर्म के अनुसार जब से आत्मा जिस योनि में जन्म ग्रहण करती है, तब से काल उसके पीछे लग जाता है और प्रतिसमय वह मृत्यु के निकट पहुंचता है, या यों कहना चाहिए कि उसका भौतिक शरीर प्रतिक्षण पुराना होता रहता है। यह ठीक है कि उसमें होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को हम अपनी आंखों से स्पष्टतः देख नहीं पाते, कुछ स्थूल परिवर्तनों को ही देख पाते हैं और इसी अपेक्षा से हम जीवन को चार भागों में बांट कर चलते हैं-1. बाल्य काल, 2. यौवन काल, 4. प्रौढ़ अवस्था और 4. वृद्धावस्था।
बाल्य काल जीवन का उदयकाल है। यौवन काल में जीवन में शक्ति का विकास होता है; मनुष्य भला या बुरा जो चाहे सो कर गुजरने की शक्ति रखता है।