Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
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है कि अपने एवं प्राणिजगत के हिताहित को भूल कर दुष्कर्म में प्रवृत्त होते ज़रा भी संकोच नहीं करती । इतिहास साक्षी है और हम स्वयं देखते हैं कि व्यक्ति जब अपने स्वार्थ में केन्द्रित होता है, तब कितना अनर्थ कर बैठता है । आज राष्ट्र में व्याप्त रिश्वत, चोर-बाजारी एवं लूट-खसूट आदि की घटनाएं तथा छल-कपट, धोखा और विश्वासघात करने के षड्यन्त्र स्वार्थी मनोवृत्ति के ही परिणाम हैं। इसी बात को सूत्रकार ने “ अट्ठालोभी अलुंपे, सहसाकारे विणिविट्ठ चित्ते......” वाक्य से स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य धन के पीछे इतना पागल एवं उन्मत्त बन जाता है कि वह भयंकर से भयंकर पाप को करने के लिए उद्यत हो जाता है । उस समय वह उसके दुःखद परिणाम की ओर से आंख मून्द कर पाप के प्रज्वलित दावानल में कूद पड़ता है।
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वह पाप कार्य में निमज्जित व्यक्ति सदा अपने परिवार में आसक्त रहता है और अपने व्यक्तिगत एवं परिवारगत स्वार्थों को साधने के लिए विभिन्न पाप कार्यों में प्रवृत्त होता है । वह कहता है कि यह मेरी माता है, यह मेरा पिता है तथा इसके साथ मेरा भाई, बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू या स्वजन - स्नेही का संबन्ध है। ये मेरे प्रिय हैं, दुःख-सुख के साथी हैं, ऐसा समझ कर प्रमादी व्यक्ति विभिन्न शस्त्रों एवं विभिन्न उपायों एवं षड्यन्त्रों से अनेक प्राणियों को परिताप देता है, कष्ट देता है तथा उनके धन-वैभव एवं प्राणों को लूटता है । इस प्रकार मनुष्य अपने स्वार्थ, धनप्राप्ति तथा परिजनों में आसक्त होकर पापों में प्रवृत्त होता है और उसके परिणामस्वरूप भविष्य में मनुष्य बनकर भी अल्प आयु में ही मर जाता है। यदि दीर्घ आयु भी प्राप्त कर ले, तो भी उस का जीवन सुख-शांति से व्यतीत नहीं होता । उसका जीवन अन्य के लिए तो क्या, उसके स्वयं के लिए बोझिल हो जाता है । वह रात - दिन संकटों के झूले में झूलता रहता है । उसे किस प्रकार के दुःखों का संवेदन करना पड़ता है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - सोयपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं चक्खुपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, घाणपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, रसणापरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, फासपरिण्णाणेहिं, परिहायमाणेहिं अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए तओ से एगदा मूढभावं जणयति ॥64॥