Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
प्रथम अध्ययन में विभिन्न योनियों में परिभ्रमणशील जीवों के अस्तित्व का विवेचन किया गया है। इससे मन में यह जानने की सहज ही जिज्ञासा होती है कि यह संसार क्या है और इस पर विजय कैसे पाई जा सकती है ? इस प्रश्न का समाधान द्वितीय अध्ययन में किया गया है। इसके 'लोकविजय' नाम से भी इस बात का स्पष्ट परिचय मिल जाता है ।
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प्रस्तुत अध्ययन का नाम है - 'लोकविजय' । लोक की व्याख्या विभिन्न प्रकार
ई है। प्रस्तुत अध्ययन में लोक का अर्थ है - कषाय या राग-द्वेष, जो भाव - लोक कहा जाता है। उसके विपरीत द्रव्य, क्षेत्र आदि भी लोक माने गए हैं, परन्तु प्रमुखता भावलोक की है; क्योंकि द्रव्यलोक का अस्तित्व भावलोक पर आधारित है। कारण. स्पष्ट है कि राग-द्वेष एवं कषाय- युक्त परिणामों से कर्म का बन्धन होता है और परिणामस्वरूप आत्मा एक योनि से दूसरी योनि में परिभ्रमण करती रहती है। इसी परिभ्रमण का नाम संसार है और इस संसार का मूल बीज राग-द्वेष है' और राग-द्वेष भावलोक हैं। इससे स्पष्ट हो गया कि द्रव्यलोक का मूल भावलोक है । अतः भावलोक पर विजय प्राप्त कर लेने पर द्रव्यलोक पर विजय सहज ही हो जाती है। मूल का उन्मूलन कर देने पर शाखा-प्रशाखा, पत्र-पुष्प आदि का विनाश तो स्वयं ही हो जाता है; क्योंकि उनको सारा पोषण मूल से मिलता है। मूल के अभाव में उन्हें पोषण नहीं मिलेगा और खुराक के अभाव में वे जीवित नहीं रह सकते। मूल का नाश होते ही उनका भी विनाश हो जाता है । इसलिए साधक को यह प्रेरणा दी गई है कि वह द्रव्यलोक पर विजय पाने की अपेक्षा भावलोक पर विजय पाने का प्रयत्न करे । भावलोक-राग-द्वेष का सर्वथा उन्मूलन करने का प्रयत्न करे। राग-द्वेष का उच्छेद कर दिया, तो फिर द्रव्यलोक का उच्छेद तो स्वतः ही हो जाएगा। यह कहावत सोलह आना सत्य है कि 'न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी' । अतः साधक को अपनी शक्ति, अपनी साधना की शक्ति राग-द्वेष एवं कषाय रूप भावलोक पर विजय पाने में लगानी चाहिए। साधक का एकमात्र ध्येय एवं लक्ष्य यही होना चाहिए । इसी बात प्रेरणा देते हुए सूत्रकार प्रस्तुत अध्ययन का प्रारम्भ करते हुए कहते हैंमूलम् - ज़े गुणे से मूलट्टाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे । इति 1. रागो य दोसो वि य कम्मवीयं ।
–उत्तराध्ययन, 32/7