Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार : 7
मूलम् - पहू एजस्स दुगुंछणाए ॥1/7/56
मूलार्थ- हे शिष्य! वक्ष्यमाण गुणों वाला व्यक्ति वायुकायिक जीवों के आरम्भ से निवृत्त होने में समर्थ होता है ।
पहू - अर्थात् - प्रभु या समर्थ, यह दो प्रकार से होता है - 1. बाह्य - शारीरिक रूप से समर्थ, 2. आभ्यंतर - दर्शनमोह एवं चारित्र मोहनीय कर्मों का क्षयोपशम । इन दोनों के योग से श्रमणत्व आता है। इसमें भी आवश्यक है आन्तरिक सामर्थ्य |
संसार-संसार का अर्थ बाह्य शक्ति का संवर्धन एवं विकास ।
मोक्ष - मोक्ष का अर्थ आन्तरिक शक्ति का संवर्धन एवं विकास ।
समर्थ कौन होता है? इन वक्ष्यमान गुणों से युक्त व्यक्ति ही समर्थ होता है,'
क्योंकि इन गुणों के कारण उसमें दुगुछणाए - जीवों के आरंभ-समारंभ से निवृत्ति,
सर्वजीवों के प्रति मैत्री, इन्द्रियों के विषयों से विरक्ति एवं देह-भाव से उपरति, स्वभाव में सदा ही प्रवृत्ति रूप स्वाभाविक गुण होता है, ऐसा व्यक्ति 'पहू' प्रभु या समर्थ है। जैसे- शूकर की स्वभाविक वृत्ति है विष्ठा खाने की । इसी प्रकार देहाध्यास के रहते, मोहनीय कर्म के दर्शन - मोह तथा चारित्र मोह के उदय में, आरंभ-समारंभ की, विषय-विलास की स्वाभाविक वृत्ति होती है। मोहनीय कर्म के क्षय से आत्म-तत्त्व का बोध होने पर आरंभ-समारंभ से निवृत्ति - रूप स्वरूप - रमण की स्वाभाविक वृत्ति जागरूक होती है।
कोई शूकर को जाति-स्मरण ज्ञान होने पर यदि विष्ठा का त्याग करे, तब अन्य शूकर उसके बारे में क्या कहेंगे? वह बड़ा त्यागी है। वस्तुतः ज्ञान के प्रकाश में उसे पता लग गया कि सार क्या है और असार क्या है।
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संसारी किसे कहते हैं? जो निस्सार को सार मानता है । जैसे जिस शूकर को ज्ञान हो जाए तो वह स्वयं विष्ठा का त्याग कर अन्य को भी विष्ठा का त्याग करने