Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
छाया - स वसुमान् सर्व- समन्वागतप्रज्ञानेनात्मना अकरणीयं पापं कर्म नान्वेषयेत् तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं षड्जीवनिकायशस्त्रं समारंभेत, नौवन्यैः षड्जीवनिकायशस्त्रं समारंभयेत्, नैवान्यान् षड्जीवनिकाय शस्त्रं समारंभमाणान् समनुजानीयात् यस्यैते षड्जीवनिकायशस्त्र - समारंभा परिज्ञाता भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ।
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पदार्थ-से-वह छह काय के आरंभ से निवृत्त हुआ मुनि । वसुमं - चारित्र रूप धन-ऐश्वर्य-संपन्न। सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं - सर्व प्रकार से बोध एवं ज्ञान युक्त । अप्पाणेणं - अपनी आत्मा से । अकरणिज्जं - अकरणीय - अनाचरणीय है, जो । पाव कम्मं - 18 पाप कर्म, उनके । णे अण्णेसिं-उपार्जन का प्रयत्न न करे । तं - उस पाप कर्म को । परिण्णाय - जानकर । मेहावी - बुद्धिमान साधु । णेव सयं- नः स्वयं । छज्जीवनिकायसत्थं - छह काय के शस्त्र का। समारंभेज्जा - समारंभ करे । वण्णेहिं-न अन्य से । छज्जीवनिकाय - सत्थं - छहकाय के शस्त्र का । समारंभा -
- समारंभ करावे तथा । छज्जीवनिकायसत्थं - छहकाय के शस्त्र का । समारंभते-समारंभ करने वाले । अण्णे - अन्य व्यक्ति को । णेव समणुजाणेज्जा- - न अच्छा समझे या उसका समर्थन भी न करे । जस्सेते -- जिसके ये । छज्जीवनि - कायसत्यं समारंभा - छहकाय के शस्त्र के समारंभ । परिण्णाया भवंति - परिज्ञात हैं। से हुमणी - वही मुनि । परिण्णायकम्मे - परिज्ञातकर्मा है । त्ति बेमि - इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
मूलार्थ - वह संयम रूप ऐश्वर्य संपन्न साधु सर्व प्रकार से बोध एवं ज्ञान युक्त होने से वह आत्मा से अकरणीय 18 पाप कर्मों को जानकर और छह काय की हिंसा से पापकर्म का बन्ध होता है, ऐसा समझ कर, न तो स्वयं छह काय की हिंसा करता है, न अन्य से कराता है और न हिंसा करने वाले का समर्थन ही करता है 1 यह आरंभ-समारंभ जिसे परिज्ञात है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा कहलाता है । इस प्रकार मैं कहता हूं।
हिन्दी - विवेचन
जीवन में धन-ऐश्वर्य का भी महत्व है । ऐश्वर्य एकान्ततः त्याज्य नहीं है । क्योंकि धन-ऐश्वर्य भी दो प्रकार का है - 1. द्रव्य धन और 2. भाव धन । स्वर्ण,