Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार : 7
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हुए, श्वास लेते हुए मन में 'सो' कहना अथवा श्वास लेने पर होने वाली ध्वनि 'सो' के प्रति जागरूक रहना। उसके बाद अन्तर कुम्भक करना व अन्तर कुम्भक करते हुए मन में यह धारणा बनानी कि भीतर आई हुई प्राणशक्ति समस्त अंग एवं उपांगों में फैल रही है। इसी प्रकार जितना कर सके, करते रहना ।
आलस्य-निवारण-अत्यधिक शारीरिक शैथिल्य आलस्य, तन्द्रा से उपरत होने के लिए सर्वप्रथम श्वास बाहर छोड़ते हुए 'हं' कहना अथवा श्वास छोड़ने पर स्वाभाविक रूप से होने वाली ध्वनि 'हं' के प्रति जागरूक रहना । श्वास छोड़ते हुए मन में यह धारणा करनी कि एक अन्धकार के रूप में आलस्य भी बाहर जा रहा है, तत्पश्चात् जहाँ तक हो सके बाह्य कुम्भक । बाह्य कुम्भक करते हुए कुछ भी नहीं सोचना । फिर गहराई से लम्बा और धीमा श्वास लेते हुए 'सो' अथवा श्वास लेने पर होने वाली स्वाभाविक ध्वनि 'सो' के प्रति जागृत रहना तथा मन में यह धारणा करनी कि भीतर श्वासाथ स्फूर्ति, ताजगी और चैतन्य एक प्रकाश के रूप में भीतर आ रहा है। तत्पश्चात् अन्तर कुम्भक करना और मन में यह धारण करनी कि वह प्रकाश स्फूर्ति और चैतन्य शरीर के कण-कण में फैल रहा है। सफेद जगमगाता हुआ प्रकाश और अंधकार गहरा काला ।
हम जिस प्रकार की धारणा करते हैं, उसी प्रकार की मानसिक धारणा का प्रभाव शरीर पर अत्यधिक रूप से पड़ता है । मन और विचार भी पुद्गल हैं एवं शरीर भी पुद्गल है । अतः पुद्गल पुद्गल को गति देता है । सारा ध्यान मन की धारणा, सोऽहं के प्रति बनाए रखना । जितना आराम से हो सके, उतना करना ।
मूलम् - - लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्यं समारम्भमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण - माणणपूयणाए-जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वाउसत्यं समारभति, अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेइ, अण्णेवाउसत्थं समारंभंते समणुजाणति, तं से अहियाए, तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोंच्चा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति, एस खलु गंथे,