Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार : 6
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सत्त्व-पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायुकाय को सत्त्व कहा जाता है; क्योंकि पृी, पानी, अग्नि और वायु से हमारे शरीर को सत्त्व मिलता है। जितने ही वे चारों शुद्ध होंगे, उतना ही वे हमें सात्त्विकता का अनुभव कराते हैं। उतना ही शरीर सत्त्व से भरपूर रहता है।
सत्त्व अर्थात् अस्तित्व जो हमारे अस्तित्व को टिकाने में सहयोगी बनते हैं, वे सत्त्व हैं। - शुद्ध सत्त्व-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु के जितने नजदीक रहोगे, उतना ही शरीर शुद्ध होंगा। इसी सत्त्व के आधार पर जिस चिकित्सा पद्धति का विकास हुआ है, उसे प्राकृतिक चिकित्सा कहते हैं-शरीर एवं चित्त शान्ति के लिए।
मुनिजनों को इसका खयाल रखना चाहिए कि जहाँ तक हो सके, शुद्ध सत्त्व में निवास करें। उससे शरीर एवं चित्त शान्त रहता है।
मूलम्-तत्थ-तत्थ पुढो पास आतुरा परितावंति, संति पाणा पुढो सिया॥1/6/52
मूलार्थ-हे शिष्य! तू देख कि ये विषय-कषायादि से पीड़ित अस्वस्थ मन वाले जीव विभिन्न प्रयोजन एवं अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए अनेक त्रस प्राणियों को परिताप, कष्ट एवं वेदना पहुंचाते हैं। ये त्रस जीव पृथ्वी, पानी वायु आदि के आश्रय में रहे हुए यत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान हैं। __आतुर-आतुर का एक अर्थ है धैर्य का अभाव। .
मन को गति कौन देता है? मन को विषय गति देते हैं। संकल्प और विकल्प गति देते हैं-जितने संकल्प-विकल्प अधिक होंगे, विषयों में विलास होगा, मन उतना ही आतुर होगा। ... चित्त की उपशान्ति से धैर्य का विकास होता है। आतुरता का अर्थ है, कुछ-न-कुछ करने की वृत्ति, कर्ताभाव, ऐसे कर्ता-भाव से परिताप का अनुभव होता है। परिताप का आगमन होता है। यह परिताप स्वसंबंधी एवं परसंबंधी दोनों रूप से है। आतुरता को मिटाने के लिए दीक्षा लेने के पश्चात् सामायिक से लेकर ग्यारह अंग तक का अभ्यास कराया जाता था।