Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
इस प्रकार जो मंद है, अविज्ञात है वह संसार - परिभ्रमण करता है । यह व्याख्या तत्त्वबोध की अपेक्षा से है ।
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2. दूसरी अपेक्षा से, जो मंद है अर्थात् जो समुट्ठाए सम्यक् रूप से उत्थित नहीं हुआ है, जो पुरुषार्थ नहीं कर रहा है या जो सम्यक् दिशा में पुरुषार्थ नहीं कर रहा है, ऐसा व्यक्ति मंद है, वह मंद ही रहेगा। आत्म - बोध के लिए, तत्त्वज्ञान के लिएसम्यक् रूप से उत्थित होगा, पुरुषार्थ करेगा तभी वह अविज्ञात् से विज्ञात होगा और संसार-परिभ्रमण से मुक्त होगा । वह पुरुषार्थ की अपेक्षा से ।
मूलम् - निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिनिब्बाणं सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खंत्ति बेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासु ॥1/6/51
मूलार्थ - हे शिष्य ! सकाय के संबंध में सम्यक् चिन्तन-मनन एवं पर्यावलोकन करके मैं तुम्हें कहता हूँ कि प्रत्येक जीव सुख का इच्छुक है। अतः समस्त प्राणी, भूतजीव और सत्त्व सुखेच्छु हैं और सबको असाता - अशांतिरूप महाभयंकर दुःख से भय है और दिशा-विदिशाओं में स्थित ये प्राणी इन प्राप्त होने वाले दुःखों से संत्रस्त हो रहे हैं।
निज्झाइत्ता-निदिध्यासन, जो पुनः पुनः दोहराने से स्वयं स्मरण में रहे वह निदिध्यासन है ।
पडिलेहित्ता-प्रतिलेखन करना, जैसे हम स्थान का प्रतिलेखन करते हैं, वैसे ही काया का, वाणी का एवं मन का प्रतिलेखन करना । समता एवं जागरूकता पूर्वक देखना ।
परिनिव्वाणं-निर्वाण-वाण रहित होना - वाण जिससे आपके भीतर पीड़ा दुःख अशान्ति का अनुभव हो ।
साधु - जो किसी को दुःख नहीं देता और परम सुख का मार्ग बताता है । अविज्ञ होना संसार का मूल कारण है ।
ऐसे तो प्रत्येक व्यक्ति सुख खोजता है । सुख चाहता है, फिर भी उसे दुःख मिलता है; क्योंकि उसे सुख प्राप्ति का मार्ग पता नहीं है । जिस मार्ग से वह सुख