Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कषाय से स्थिति एवं रस बन्ध ( अनुभाग बन्ध) कषाय के कारण कर्म की स्थिति कितनी होगी और तीव्रता कितनी होगी, यह निश्चित होता है।
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व्रत इसलिए कि तुम जितना कर सको उतना करो, जितने अंशों में आरंभसमारंभ का त्याग करोगे, उतना ही संवर होगा । व्रत लेने पर जागरूकता आती है। यहाँ पर जो गृहस्थ एवं साधु की चोरी में अन्तर है, वैसा नहीं है। मूलतः कर्म बन्धन योगों की चंचलता एवं कषाय से होते हैं। बाहर से जो व्रत लिए जाते हैं, वे इन दोनों को कम करने के लिए हैं । इस प्रकार व्रत का मूल अर्थ हुआ किस प्रकार योग स्थिरता एवं कषाय उपशान्ति हो ।
गृहस्थ के व्रत - जैसे गृहस्थ भी उत्कृष्टता से तीन करण, तीन योग से त्याग कर सकता है, जिस प्रकार चौथे व्रत में चाहे पूर्णतः कुशील का त्याग करे, चाहे पत्नी का आगार रखें लेकिन पत्नी के साथ भी जो अब्रह्म का सेवन होगा, उससे भी कर्मों का आस्रव तो अवश्य होगा, लेकिन फिर भी कुछ भी न करने की अपेक्षा, इतना करना अच्छा है । 'आज के परिप्रेक्ष्य में अणुव्रत मूलतः महाव्रत की तैयारी है । ' अणुव्रत लेने पर यह समझ में आता है कि व्रत का पालन कैसे हो सकता है और व्रती का जीवन कैसा हो ।
जीवन-जीवन-निर्वाह हेतु निरवद्य क्रिया करने पर भी क्या दोष लगता है ?
कर्मास्रव का मूल बीज है आकांक्षा और इसका भी मूल है जीवाकांक्षा । अतः जीवित रहने हेतु जीवन की अभिलाषा हेतु कुछ भी करोगे बन्धन होगा ।
तो फिर किस प्रकार क्रिया करनी?
संयम - पालन हेतु, आत्मबोध के उद्देश्य से जो भी जरूरी है करना । 'निरवद्य क्रिया' करना उससे संवर और निर्जरा होती है । केवल जीवित रहने के उद्देश्य से की गई क्रिया आस्रव और बन्ध लाती है। संयम और साधना हेतु की गई क्रिया संवर और निर्जरा लाती है, क्योंकि शरीर संयम पालन में सहयोगी है, इसलिए शरीर की रक्षा और उसका ध्यान रखना भी आवश्यक है। साधु के लिए मूल उद्देश्य है, आत्म-बोध । कोई भी मुनि कब बनता है, जब सारी अभिलाषाएं छूट जाएं। मूल बात है आकांक्षा, उद्देश्य, क्रिया के पीछे रही हुई भावना - जैसे- धर्म कथा यदि धर्म प्रभावना के उद्देश्य