Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अस्तित्व रहा हुआ है। इसी कारण इन उत्पत्तिशील या भ्रमणशील जीवों को संसार कहा गया है।
त्रस जीवों के उत्पत्ति स्थान के संबन्ध में एक और मान्यता भी है। तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता आचार्य उमास्वाति त्रस जीवों के उत्पत्ति स्थान तीन मानते हैं-सम्मूर्छन, गर्भज और औपपातिक' । इन दोनों विचारधाओं में केवल संख्या का भेद दृष्टिगोचर होता है। परंतु वास्तव में दोनों में सैद्धांतिक अंतर नहीं है। दोनों विचार एक-दूसरे से विरोध नहीं रखते। क्योंकि-रसज, संस्वेदज और उद्भिज ये तीनों सम्मूर्छन जीवों के ही भेद हैं, अंडज, पोतज और जरायुज ये तीनों गर्भज जीवों के भेद हैं और देव एवं नारकों का उपपात से जन्म होने के कारण वे औपपातिक कहलाते हैं। अतः तीन
और आठ भेदों में कोई अंतर नहीं है। यों कह सकते हैं कि त्रस जीवों के मूल उत्पत्ति स्थान तीन प्रकार के हैं और आठ प्रकार के उत्पत्ति स्थान उन्हीं के विशेष भेद हैं, जिससे साधारण व्यक्ति भी सुगमता से उनके स्वरूप को समझ सकें
इससे स्पष्ट हो गया कि उत्पत्ति स्थान के तीन या आठ भेदों में कोई सैद्धांतिक भेद नहीं है। ये सभी उत्पत्ति स्थान जीवों के कर्मों की विभिन्नता के प्रतीक हैं। प्रत्येक संसारी प्राणी अपने कृत कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। आत्म द्रव्य की अपेक्षा से सब आत्माओं में समानता होने पर भी कर्म बंधन की विभिन्नता के कारण कोई आत्मा विकास के शिखर पर आ पहुंचती है, तो कोई पतन के गड्ढे में जा गिरती है। आगम में भी कहा है कि अपने कृत कर्म के कारण कोई देवशय्या पर जन्म ग्रहण करता है, तो कोई कुंभी (नरक) में जा उपजता है। कोई एक असुरकाय में उत्पन्न होते हैं, तो कोई मनुष्य शरीर में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चंडाल-बुक्कस आदि कुलों में जन्म लेते हैं और कोई प्राणी पशु-पक्षी, टीड-पतंग, मक्खी, मच्छर, चींटी आदि जंतुओं की योनि में जन्म लेते हैं। इस तरह विभिन्न कर्मों में प्रवृत्तमान प्राणी संसार में विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते रहते हैं। ___ योनि और जन्म ये दो शब्द हैं और दोनों का अपना स्वतंत्र अर्थ है। यह आत्मा अपने पूर्व स्थान के आयुष्य कर्म को भोगकर अपने बांधे हुए कर्म के अनुसार जिस
1. सम्मूर्छनगर्भोपपाता। 2. उत्तराध्ययन, 3/3-4।
-तत्त्वार्थं सूत्र 2/32