Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 6
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स्थान में आकर उत्पन्न होता है, उसे योनि कहते हैं और उस योनि में आकर अपने
औदारिक या वैक्रिय शरीर को बनाने के लिए आत्मा औदारिक या वैक्रिय पुद्गलों का जो प्राथमिक ग्रहण करता है, उसे जन्म कहते हैं। इस तरह योनि और जन्म का आधेय-आधार संबंध है। योनि आधार है और जन्म आधेय है।
जैनदर्शन में शरीर के पांच भेद बताए गए हैं-1. औदारिक, 2. वैक्रिय, 3. आहारक, 4. तैजस और 5. कार्मण। इनमें आहारक शरीर विशिष्ट लब्धियुक्त मुनि को ही प्राप्त होता है और वैक्रिय शरीर देव और नारकी तथा लब्धिधारी मनुष्य तिर्यंचों को प्राप्त होता है। औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यंच गति में सभी जीवों को प्राप्त होता है। तैजस और कार्मण शरीर संसार के सभी जीवों में पाया जाता है।
औदारिक या वैक्रिय शरीर का कुछ समय के लिए अभाव भी पाया जाता है, परन्तु तैजस और कार्मण शरीर का संसार अवस्था में कभी भी अभाव नहीं होता। जब आत्मा एक योनि के आयुष्य कर्म को भोग लेता है, तो उसका उस योनि में प्राप्त औदारिक या वैक्रिय शरीर वहीं छूट जाता है। उस समय केवल तैजस और कार्मण शरीर ही उसके साथ रहते हैं, जो उसके किए हुए स्वकर्म के अनुसार उसे (आत्मा को) उस योनि तक पहुंचा देते हैं। वहां आत्मा जन्म धारण करता है और कार्मण शरीर के द्वारा वहां पर स्थित पुद्गलों का आहार ग्रहण करके उसे औदारिक या वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत करता है। इस प्रकार उसका उत्पन्न होना जन्म है और जिस स्थान में उत्पन्न होता है, वह स्थान योनि कहलाता है।
तत्त्वार्थ सूत्र में उत्पत्ति स्थान तीन माने गए हैं-2. सम्मूर्छन, 2. गर्भाशय और 3. औपपातिक। स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही योनि-उत्पत्ति स्थान में स्थित औदारिक पुद्गलों को सर्वप्रथम ग्रहण करके औदारिक शरीर रूप में परिणत करना सम्मूर्छन जन्म है।
स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पत्ति स्थान-गर्भाशय में स्थित रज-शुक्र (वीय) या शोणित के पुद्गलों को पहले-पहल शरीर बनाने के हेतु ग्रहण करने का नाम गर्भज जन्म है।
देव शय्या या नरक कुंभी में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को प्रथम समय में वैक्रिय शरीर का निर्माण करने के लिए ग्रहण करने का नाम उपपात जन्म है। देव शय्या के