Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
215
प्रथम अध्ययन, उद्देशक 6
सकते हों, उन्हें त्रस जीव कहते हैं । या हम यों भी कह सकते हैं कि जिनकी चेतना स्पष्ट परिलक्षित होती है, जो अपनी शारीरिक हरकत एवं चेष्टाओं के द्वारा सुख-दुःखानुभूति करते हुए स्पष्ट देखे जाते हैं, वे त्रस जीव कहलाते हैं । स जीव द्वन्द्रय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के प्राणी होते हैं और वे असंख्यात हैं । पर उनके उत्पत्ति-स्थान आठ माने गए हैं और प्रस्तुत सूत्र में उन्हीं का उल्लेख किया गया है। वे इस प्रकार हैं
-
1. अंडज - अंडे से उत्पन्न होने वाले - कबूतर, हंस, मयूर, कोयल आदि पक्षी । 2. पोतज - पोत- चर्ममय थैली से उत्पन्न होने वाले - हाथी; वल्गूली, चर्म- जलूक आदि पशु !
3. जरायुज - जेर से आवेष्टित उत्पन्न होने वाले - गाय, भैंस, मनुष्य इत्यादि पशु एवं मानव ।
4. रसज - खाद्य पदार्थों में रस के विकृत होने-बिगड़ने से उसमें उत्पन्न होने वाले द्वीन्द्रियादि जीव-अधिक दिन की खट्टी छाछ, कांजी आदि में नन्ही-नन्ही कृमियाँ उत्पन्न हो जाती हैं ।
5. संस्वेदज - पसीने से उत्पन्न होने वाली -जूं, लीख आदि ।
6. समूर्च्छन - स्त्री - पुरुष के संयोग बिना उत्पन्न होने वाले - चींटी, मच्छर, भ्रमर आदि जीव-जन्तु ।
7. उद्भिज - भूमि का भेदन करके उत्पन्न होने वाले - टीड, पतंगे इत्यादि जन्तु । 8. औपपातिक - उपपात - देव-शय्या एवं कुंभी में उत्पन्न होने वाले देव एवं
नारकी जीव ।
संसार में जितने भी त्रस जीव हैं, वे सब आठ प्रकार से उत्पन्न होते हैं इस तरह समस्त स जीवों का इन आठ भेदों में समावेश हो जाता है । इनके समन्वित रूप को ही संसार कहते हैं, अर्थात् जहां इन सब जीवों का आवागमन होता रहता है, एक गति से दूसरी गति में संसरण होता है, उसे ही संसार कहते हैं। क्योंकि जीवों के एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण करने के आधार पर ही संसार का
1. दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 4 में भी उक्त आठ प्रकार के उत्पत्तिस्थानों का उल्लेख मिलता है।