Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 4
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अर्थात-अग्नि को वर्णादि रूप से जानने वाले को 'क्षेत्रज्ञ' कहते हैं और अग्नि के दहनादि रूप व्यापार का नाम खेद है और उसका परिज्ञाता 'खेदज्ञ' कहलाता है।
अशस्त्र शब्द का अर्थ है-संयम। क्योंकि शस्त्र से जीवों का नाश होता है, उन्हें वेदना-पीड़ा होती है, परन्तु संयम से किसी भी जीव को वेदना, पीड़ा एवं प्राण-हानि नहीं होती। इसलिए संयम को अशस्त्र कहा है। अस्तु, जो अग्नि के स्वरूप का ज्ञाता होता है, वही संयम का आराधक होता है। और जो संयम के स्वरूप को भली-भांति जानता है, वही अग्निकाय के आरम्भ से निवृत्त होता है। इस तरह संयम एवं अग्निकायिक आरम्भ-निवृत्ति का घनिष्ठ संबंध स्पष्ट किया है।
अब सूत्रकार इस बात को बताते हैं कि यह तत्त्व महापुरुषों के द्वारा जाना एवं कहा गया है__ मूलम्-वीरेहिं एयं अभिभूय दिटुं संजएहिं सया जत्तेहिं सया अप्पमत्तेहिं॥34॥ ..
छाया-वीरैः एतत् अभिभूय दृष्टं संयतैः सदा यतैः सदा अप्रमत्तैः।
पदार्थ-संजएहि-संयत पुरुष। सया-सदा। जत्तेहि-यत्न-शील। सया-सदा। अप्पमत्तेहिं-प्रमाद रहित, रह कर। वीरेहि-वीर पुरुषों ने। अभिभूय-परीषहों को जीत कर तथा पूर्णज्ञान को प्राप्त कर। एयं-इस अग्निकाय रूप शस्त्र को। दिटुं-देखा है।
मूलार्थ-महाव्रतों के परिपालक, सदा यत्नशील और अप्रमत्त रहने वाले वीर पुरुषों ने परीषह तथा कर्मों को अभिभूत करके प्राप्त केवल ज्ञान के द्वारा अग्निकाय रूप शस्त्र और संयमरूप अशस्त्र को देखा है।
हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि पूर्व सूत्र में अग्निकाय रूप शस्त्र एवं अशस्त्र रूप संयम के स्वरूप को जानकर अग्निकाय के आरम्भ से निवृत्त हो कर संयम में प्रवृत होने की जो बात कही गई वह नितांत सत्य है, क्योंकि वीर पुरुषों ने