Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि जो व्यक्ति प्रमत्त' और गुणार्थि' है, वह दण्डरूप है। क्योंकि प्रमाद एवं गुणार्थि इन दो कारणों से ही व्यक्ति अग्नि के आरम्भ में प्रवृत्त होता है। और विषय कषाय से युक्त होकर रंधन, पाचन, आताप-प्रकाश आदि के लिए अग्निकाय का आरम्भ करता है, इसलिए उसकी इस प्रवृत्ति को
प्रवृत्ति का है। और इस प्रवृत्ति से प्राणियों को दण्डित करने का कारण वह है, इसलिए उसे दण्ड रूप भी कहा है। ऐसा देखा गया है कि वस्तु के गुण-दोष या प्रवृत्ति के अनुसार वस्तु का नाम रख दिया जाता है, गुणानुसारी नाम - करण की पद्धति पुरातन काल से चली आ रही है । जैसे घृत आयुवर्द्धक है, इसलिए उसका आयु रूप से निर्देश किया जाता है- “ आयुर्वै घृतम्” इसी तरह प्रमादी एवं गुणार्थी जीव अग्निकाय के आरम्भ समारम्भ में प्रवृत्त होकर अग्निकायिक एवं उनके आश्रय में रहे हुए अन्य त्रस-स्थावर जीवों को दंडित करते हैं, इसलिए उन्हें दण्ड रूप कहा गया है ।
प्रमादी और गुणार्थि को दण्ड रूप कहा गया है। दण्ड से दुःखों की उत्पत्ति होती है, इसलिए सूत्रकार उसके परित्याग की प्रेरणा देते हुए कहते हैं---
मूलम् - तं परिणाय मेहावी इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं ॥36॥
छाया - तत् परिज्ञाय मेधावी इदानीं नो यदहं पूर्वमकार्ष प्रमादेन ।
पदार्थ-तं-इस अग्निकाय के आरम्भ को । परिण्णाय - जानकर महावीबुद्धिमान यह निश्चय करे । जं - जिस आरम्भ को । पमाएणं - प्रमाद से | अहं - मैंने । पुव्वं - प्रथम | अकासी - किया था, उसको । इयाणिं - इस समय | णो- नहीं करूंगा ।
मूलार्थ - अग्निकाय के आरंभ से होने वाले अनर्थ को जान कर बुद्धिमान पुरुष इस बात का निश्चय करे कि प्रमाद के कारण मैं पहले अग्निकाय के आरंभ को करता रहा हूं, इस समय उसका परित्याग करता हूं ।
1. मद्य, विषय, कषायादि का सेवन करने वाला ।
2. अग्नि-रन्धन, पाचन आदि गुणों का आकांक्षी - चाह रखने वाला ।