Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
जीवाजीव आदि पदार्थों को भली-भांति जान कर और संयम - साधना का सम्यक् परिबोध करके, यह निश्चय करता है कि मैं वनस्पतिकाय का आरम्भ-समारंभ नहीं करूंगा, वही व्यक्ति वनस्पतिकायिक जीवों के आरम्भ से उपरत - निवृत कहा जाता है और ऐसे त्यागनिष्ठ एवं निवृत्ति - प्रधान जीवन की साधना जिन मार्ग के अतिरिक्त अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती। ऐसे त्यागी साधक को ही अनगार कहा जाता है । . हिन्दी - विवेचन
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प्राणी अनन्त काल से मोह एवं वासना के घोर अन्धकार में भटकता रहा है । अनेक तरह से विषयेच्छा को पूरी करने का प्रयत्न करने पर भी उसकी इच्छा की तृप्ति नहीं हो पाती । तृष्णा की भूख नहीं बुझती । यों कहना चाहिए कि उसकी तृष्णा, आकांक्षा एवं वासना की क्षुधा तृप्त होने के स्थान में प्रतिपल बढ़ती है और वह भोगेच्छा के वश होकर अनेक तरह से वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है । अपने विलास एवं सुख के लिए रात-दिन विभिन्न प्रकार की हरितकाय - शाक-सब्जी एवं फल-फूलों के आरम्भ - समारम्भ में संलग्न रहता है। इस तरह प्रमाद एवं मोह के वश हुआ प्राणी वनस्पतिकाय की हिंसा करके कर्मों का बन्ध करता है और फलस्वरूप दुःख एवं जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाता है ।
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वनस्पतिकाय का आरम्भ दुःख की परम्परा में अभिवृद्धि करने वाला है इस बात को बताते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट कर दिया है कि जो बुद्धिमान पुरुष वनस्पतिकाय के आरंभ समारंभ को तथा जीवाजीव आदि तत्त्वों का परिज्ञान कर के, संयम-मार्ग पर गति करता है, वही वनस्पतिकाय के आरम्भ समारम्भ से निवृत्त होता है और वही व्यक्ति दुःख-परम्परा का या यों कहिए कर्म - बीज का सर्वथा उन्मूलन कर देता है।
प्रस्तुत सूत्र ज्ञान और चारित्राचार के समन्वय का आदर्श लिए हुए हैं। यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि चारित्र का मूल्य ज्ञान के साथ है। सम्यग् ज्ञान के अभाव में की जाने वाली क्रिया एवं जप-तप का आध्यात्मिक विकास या मोक्ष मार्ग की दृष्टि से कोई विशेष मूल्य नहीं है और यही कारण है कि प्रशंसा एवं भौतिक सुख पाने की इच्छा-आकांक्षा से अज्ञान पूर्वक की जाने वाली क्रिया एवं जप-तप बिना आकांक्षा के सम्यग् ज्ञान पूर्वक आचरित त्याग - तप के सोलहवें अंश के बराबर भी