Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
ये तीनों ही प्रकार के साधु भगवान की आज्ञा में नहीं हैं। ऐसे तो श्रावक भी तभी श्रावक है, जब वह मन को गुपित करना जानता है और करता है । श्रावक मन का गोपन आंशिक रूप से करता है, साधु पूर्णतः करता है । इस प्रकार जिन भगवान का आराधक वही है, जो त्रिगुप्ति की साधना करता है ।
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कम से कम त्रिगुप्ति की साधना में विश्वास तो होना चाहिए कि सच्चे सुख एवं सत्य का मार्ग तो यही है पर मैं नहीं कर सकता । जैसे त्रिदण्डी के भव में भगवान महावीर का जीव कहता है सत्य मार्ग तो भगवान का है परन्तु मैं आचरण नहीं कर सकता। यह है दर्शन । त्रिगुप्ति की साधना में आस्था ।
विषयों के विस्तार में जिसकी आस्था है वह मिथ्यादृष्टि है। विषयों के विस्तार सम्बन्धी जो ज्ञान है, वह मिथ्या ज्ञान है ( व्यवहार नय से) और विषयों का विस्तार करते जाना दुश्चरित्र है। शुरूआत आस्था से होती है, क्योंकि आस्था से ही रुचि होती है । जहाँ आस्था होगी, वहीं रुचि आएगी। जिसके पास केवल आस्था है, वह भी जैन है। यह जघन्यतम अवस्था है । जो आस्था के साथ गुप्ति की विधि भी जानता है परन्तु आचरण नहीं करता, वह मध्यम है और विधि के साथ जो तदनुसार: आचरण भी करता है वह उत्कृष्ट है।
साधु कौन है ? जिसके पास दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों हैं, जिसे त्रिगुप्ति की साधना पर आस्था है और त्रिगुप्ति की साधना का ज्ञान भी है तथा तदनुसार साधना भी करता है। साधु अर्थात् जो त्रिगुप्ति को पूर्णत साधता है। यदि इस अपेक्षा से देखा जाए तो रत्नत्रय के धारक मुनिजन बहुत ही थोड़े हैं, क्योंकि मनोगुप्ति का अगर पता नहीं हे तो किस प्रकार की दीक्षा ? किस प्रकार का संयम ? मन इधर-उधर अटकेगा और यदि विधि का भी पता है, लेकिन पुरुषार्थ नहीं किया जाए, तब भी मन जाएगा, इसलिए पुरुषार्थ करना भी जरूरी है ।
मूलम् - पुणो- पुणो गुणासाए वंक समायारे ॥1/5/44॥ पमत्तेऽगारमावसे॥1/5/45॥
मूलार्थ - बार-बार शब्दादि गुणों का आस्वादन करने से व्यक्ति असंयम में प्रवृत्त हो जाता है । विषयों में आसक्त प्रमादी व्यक्ति फिर से घर में निवास करने लगता है।