Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5
गुणों की परिणति होती है । इस दृष्टि से गुणों को संसार कहा गया है और दोनों जगह कारण में कार्य का आरोप होने से गुणों को संसार एवं संसार को गुण कहा गया है।
वस्तुतः देखा जाए तो राग-द्वेष युक्त भावों से गुणों में या विषयों में प्रवृत्ति करने का नाम ही संसार है । क्योंकि संसार में परिलक्षित होने वाली विभिन्न गतियां एवं योनियां राग-द्वेष एवं गुणों-विषयों की आसक्ति पर ही आधारित हैं । राग-द्वेष से कर्म बंधते हैं, कर्म-बन्ध से जन्म-मरण का प्रवाह चालू रहता है और जन्म-मरण ही वास्तविक दुःख है। इससे स्पष्ट हो गया कि संसार का मूल राग-द्वेष हैं, गुण हैं, विषय-विकार हैं ।
'गुण' शब्द में एक वचन का प्रयोग किया है । इससे गुण शब्द व्यक्ति से भी संबन्धित है। जब इसका संबन्ध व्यक्ति के साथ जोड़ते हैं, तो प्रस्तुत सूत्र का अर्थ होगा - जो व्यक्ति शब्दादि गुणों में प्रवृत्त है, वह संसार में परिभ्रमणशील है और जो व्यक्ति संसार में गतिमान है, वह गुणों में प्रवृत्तमान है ।
यहां यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि जो व्यक्ति गुणों में प्रवृत्त है, वह संसार में वर्तता है, यह कथन तो ठीक है; परन्तु जो संसार में वर्तता है, वह गुणों में वर्तता है, यह कथन युक्ति-संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि संयमशील साधु संसार में रहते हैं परन्तु गुणों में प्रवृत्ति नहीं करते । अतः संसारवर्ती को नियम से गुणों में प्रवृत्तमान मानना उचित प्रतीत नहीं होता ।
.. यह ठीक है कि यहां गुणों का अर्थ राग-द्वेष युक्त गुणों में प्रवृत्ति करने से लिया गया है, क्योंकि गुणों में प्रवृत्ति होने मात्र से कर्म का बन्ध नहीं होता, कर्म का बन्ध राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति से होता है । यह सत्य है कि संयम से बन्ध नहीं, कर्मों की निर्जरा होती है । परन्तु छठे गुणस्थान संयम के साथ जो सरागता है, उससे भी में कर्म का बन्ध होता है। यह नितांत सत्य है कि सावद्य कार्य में प्रवृत्ति न होने के कारण पापकर्म का बन्ध नहीं होता, परन्तु धर्म, गुरु एवं सत्य, अहिंसा आदि सिद्धान्त पर सराग भाव होने से पुण्य का बन्ध होता है और इसी कारण छठे गुणस्थान में देवलोक का आयु कर्म बंधता है । देव - आयुष्य के बन्ध के चार कारणों में सराग संयम को भी एक कारण बताया गया है और देवलोक भी संसार ही है । यह ठीक है कि छठे