Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
182
.
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलार्थ-जो व्यक्ति स्वकाय एवं परकाय रूप शस्त्र से अग्निकायिक जीवों का आरम्भ करता है, वह इस बात से अपरिज्ञात होता है कि वह आरम्भ कर्मबन्ध का कारणभूत है। जो व्यक्ति अग्नि का आरम्भ नहीं करता, वह उस कर्मबन्ध के कारण से परिचित होता है। अतः अग्नि के आरम्भ को कर्मबन्धन का कारण जानकर बुद्धिमान पुरुष को न स्वयं अग्नि का आरम्भ करना चाहिए, न दूसरे व्यक्ति से आरम्भ कराना चाहिए और न आरंभ करते हुए व्यक्ति का समर्थन ही करना चाहिए। जिस मुमुक्षु पुरुष को ऐसा बोध है कि यह समारंभ कर्मबन्ध का कारण है, वास्तव में वही मुनि परिज्ञातकर्मा कहा गया है। हिन्दी-विवेचन
जो व्यक्ति ज्ञ परिज्ञा द्वारा अग्निकाय के स्वरूप का परिज्ञान करके, प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा अग्नि के आरम्भ-समारम्भ का परित्याग करता है, वहीं वास्तव में मुनि है, परिज्ञातकर्मा है। इस सम्बन्ध में दूसरे और तीसरे उद्देशक के अन्तिम सूत्र की व्याख्या में विस्तार से लिख चुके हैं, अतः उस प्रकरण में देख लेना चाहिए। 'त्ति बेमि' का अर्थ भी पूर्ववत् समझना चाहिए।
॥शस्त्रपरिज्ञा चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥