Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 4
मूलम् - से बेमि-संति पाणा पुढविनिस्सिया, तणणिस्सिया, पत्तणिस्सिया, कट्ठनिस्सिया, गोमयणिस्सिया, कयवरणिस्सिया, संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति; अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावज्जंति; ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जति ते तत्थ उद्दायंति ॥38॥
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छाया-सः (अहं) ब्रवीमि सन्ति प्राणाः पृथिवीनिश्रिताः, तृणनिश्रिताः, पत्रनिश्रिताः, काष्ठनिश्रिताः गोमयनिश्रिताः, कचवरनिश्रिताः सन्ति सम्पातिमाः प्राणाः आहत्य सम्पतन्ति, अग्नि (अग्नि) च खलु स्पृष्टाः एके संघातमाद्यन्ते ये तत्र पर्यापद्यन्ते ते तत्र अपद्रावनित ।
पदार्थ-से बेमि—वह मैं कहता हूँ । संति - विद्यमान हैं । पाणा - प्राणी । पुढविनिस्सिया - पृथ्वीकाय के आश्रय में । तणणिस्सिया - तृणों के आश्रित । पत्तणिस्सिया - पत्तों के आश्रित । गोमयनिसिस्या - गोबर के आश्रित । कयवरणिस्सिया - कूड़े-कर्कट के आश्रित । संति - विद्यमान हैं । संपातिमा - उड़ने वाले । पाणा - प्राणी । आहच्च - कदाचित् । संपयंति - अग्नि में गिर पड़ते हैं । च- फिर । अगणिं - अग्नि को । पुट्ठा - स्पष्ट होते हैं । खलु - निश्चय ही । एगे - कोई । संघायमावज्जंति-शरीर - संकोच को प्राप्त होते हैं । जे तत्थ संघायमावज्जंति-जो वहां शरीर-संकोच को प्राप्त होते हैं । ते - वे जीव । तत्थ - वहां पर । परियावज्जंतिमूर्च्छित होते हैं । जे जो जीव । तत्थ - वहां पर । परियावज्जंति - मूर्च्छित होते हैं । ते-वे जीव । तत्थ-वहां पर । उद्दायंति - प्राणों को छोड़ देते हैं, अर्थात् निर्जीव हो जाते हैं ।
मूलार्थ - हे जम्बू ! अग्निकाय के आरम्भ में विभिन्न जीवों की जो हिंसा होती . है, वह मैं तुमसे कहता हूं । पृथ्वी के आश्रय में तथा तृण, काष्ठ, गोबर, कूड़े-कर्कट के आश्रय में निवसित विभिन्न तरह के अनेक, जीव और इसके अतिरिक्त आकाश में उड़ने वाले जीव-जन्तु, कीट-पतंगे एवं पक्षी आदि जीव भी कभी प्रज्वलित आग में आ गिरते हैं और उसके (आग के ) संस्पर्श से उनका शरीर संकुचित हो जाता है और वे मुर्च्छित होकर अपने प्राणों को त्याग देते हैं ।