Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
छाया-यो दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः सोऽशस्त्रस्य खेदज्ञः योऽशस्त्रस्य खेदज्ञः से दीर्घलोक-शस्त्रस्य खेदज्ञः।
पदार्थ-जे-जो। दीहलोग-सत्थस्स-दीर्घ-लोक-वनस्पति के शस्त्र-अग्नि का। खेयण्णे-ज्ञाता होता है। से-वह। असत्थस्स-अशस्त्र-संयम का। खेयण्णे-ज्ञाता होता है। जे-जो। असत्थस्स-संयम का। खेयण्णे-ज्ञाता होता है। से-वह। दीहलोग-सत्थस्स-अग्नि का। खेयण्णे-ज्ञाता होता है।
मूलार्थ-जो वनस्पतिकाय के शस्त्र अग्नि-स्वरूप के परिज्ञाता हैं, वे संयम को भली-भांति जानने वाले हैं और जिन्हें संयम के स्वरूप का परिज्ञान है, उन्हें अग्नि के स्वरूप का भी बोध है। हिन्दी-विवेचन
दुनिया में अनेक तरह के शस्त्र हैं। परन्तु अग्नि का शस्त्र अन्य शस्त्रों से अधिक तीक्ष्ण एवं भयावह है। जितनी व्यापक हानि यह करता है, उतनी अन्य किसी शस्त्र से नहीं होती। जरा-सी असावधानी से कहीं आग की चिनगारी गिर पड़े, तो : सब स्वाहा कर देती है। इसकी लपेट में आने वाला सजीव-निर्जीव कोई भी पदार्थ सुरक्षित नहीं रहता। जब यह भीषण रूप धारण कर लेती है, तो वृक्ष मकान, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी; मनुष्य जो भी इसकी लपेट में आ जाता है, वह जल कर राख हो जाता है। अग्नि किसी को भी नहीं छोड़ती, गीले-सूखे, सजीव-निर्जीव सब इसकी लपटों में भस्म हो जाते हैं। अतः आग को सर्वभक्षी कहने की लोक-परम्परा बिलकुल सत्य है।
और इसी कारण इसे सबसे तीक्ष्ण एवं प्रधान माना गया है। आगम में भी कहा गया है कि अग्नि के समान अन्य शस्त्र नहीं है । यह पृथ्वी एवं अप्कायिक जीवों के शस्त्र के साथ वनस्पति के जीवों का भी शस्त्र है। और वनस्पति के लिए इसका उपयोग अधिक किया जाता है। घरों में शाक-भाजी बनाने एवं खाना पकाने के लिए इसी का उपयोग किया जाता है और बांस एवं चन्दन के बीहड़ वनों में उनकी पारस्परिक रगड़ एवं टक्कर से प्रायः आग का प्रकोप होता रहता है। इसलिए इसे वनस्पतिकाय का
1. विसप्पे सव्वओ धारे, बहुपाणि-विणासणे।
नत्यि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोइं न दीवए॥
-उत्तराध्ययन सूत्र 35/12