Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
होती है? गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा कि हे गौतम! एक हष्ट-पुष्ट युवक किसी जर्जरित शरीर वाले वृद्ध पुरुष के मस्तिष्क पर मुष्ठि का प्रहार करे, तो उस वृद्ध पुरुष को वेदना होती है? हां भगवन! उसे महावेदना होती है। उसी तरह पृथ्वीकाय का स्पर्श करने पर उसे भी वेदना होती है। जिस तरह पृथ्वीकाय के जीवों को वेदना की अनुभूति होती है, उसी तरह अप्काय तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के संबंध में भी जानना चाहिए।
एकेंद्रिय जीव असन्नी हैं, उनके मन होता नहीं। फिर वे सुख-दुःख का संवेदन कैसे करते हैं? अतः यह कहना कहां तक उचित है कि पृथ्वीकाय का छेदन-भेदन करने पर पृथ्वीकायिक जीवों को वेदना होती है? इसका समाधान यह है कि मन के. दो भेद माने गए हैं-1- द्रव्य मन और 2- भाव मन। असन्नी प्राणियों में द्रव्य मन नहीं होता, परन्तु भाव मन उन में भी होता है। इसलिए अनेक तरह के शस्त्रों से जब पृथ्वीकाय का छेदन-भेदन किया जाता है, तो उन्हें दुःखानुभूति होती है। उनकी चेतना अव्यक्त होने के कारण वे अपनी संवेदना को अभिव्यक्त नहीं कर पाते।
पृथवीकाय की हिंसा से अष्ट कर्म का बन्ध कैसे होता है? इस का समाधान यह है कि हिंसक प्राणी में ज्ञानादि का क्षयोपशम भाव से जो थोड़ा विकास है, स्वार्थ के कारण वह भी मन्द पड़ जाता है। इसी तरह अन्य कर्मों के संबन्ध में भी समझ लेना चाहिए। इसलिए सूत्रकार ने कहा है कि पृथ्वीकाय का आरंभ-समारंभ आठ कर्मों की ग्रंथि रूप है, मोहरूप है, मृत्यु रूप है, नरक का कारण है।
1. पुढ़विकाइए णं भंते। अक्कंते समाणे केरिसियं वेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ? गोयमा!
से जहानामए-केइ पुरिसे बलवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुण्णं जराजज्जरियदेहं जाव दुब्बलं किलंतं जमल पाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणिज्जा, से णं गोयमा! पुरिसे. तेणं पुरिसेणं जमल पाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समाणे केरिरिसियं वेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ? अणिटुं समणाउसो। तस्सणं गोयमा! पुरिसस्स वेयणाहितो पुढविकाइए अक्कते समाणे एतो अणिट्ठतरियं चेव अकंततरियं चेव जाव अमणामतरियं चेव वेयणं पच्चणु-भक्माणे विहरइ। आउएणं भंते? संघट्टिए समाणे केरिसियं वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ? गोयमा! जहा पुढ़विकाइए एवं आउकाइएवि, एवं तेउकाइएवि, एवं वाउकाइएवि, एवं वणस्सइकाइएवि जावविहरइ।
-भगवती सूत्र, शतक 18 उद्देशक 3