Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध प्रश्न-जब शस्त्र प्रयोग से अप्काय-पानी अचित्त हो जाता है, और जब जंगल आदि स्थलों में स्थित पानी धूप-ताप आदि के संस्पर्श से अचित्त हो जाता है, तो क्या साधु उस पानी को ग्रहण कर सकता है? ___उत्तर-नहीं, साधु उस पानी को स्वीकार नहीं करता। एक तो ज्ञान की अपूर्णता के कारण साधु इस बात को भली-भांति जान नहीं सकता कि वह अचित्त हो गया है। और दूसरे, व्यवहार भी ठीक नहीं लगता। इसी दृष्टि से वृत्तिकार ने लिखा है__ “यतोऽनुश्रूयते भगवता किल श्रीवर्धमानस्वामिना विमल-सलिल-समुल्लसत्तरंगः शैवल-पटल- त्रसादिरहितो महाह्रदो व्यपगताशेष-जल-जन्तुकोऽ-चित्त-वारि-परिपूर्णः स्वशिष्याणां तृङ्बाधितानामपि पानाय नानुजज्ञेः।”
अर्थात् सुना है कि भगवान महावीर वर्द्धमान स्वामी ने अपने शिष्यों को-जो तृषा से व्याकुल हो रहे थे, अचित्त होने पर भी तालाव का पानी पीने की आज्ञा नहीं दी। इसका कारण व्यवहार-शुद्धि रखने का ही है।
इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को सचित्त जल का उपयोग नहीं करना चाहिए। इसमें केवल अप्कायिक जीवों की हिंसा रूप प्राणातिपात पाप ही नहीं, अपितु अदत्तादान-चोरी का पाप भी लगता है। इस बात को बताते हुए सूत्रकार अगले सूत्र में कहते हैं
मूलम्-अदुवा अदिन्नादाणं॥27॥ . छाया-अथवा अदत्तादानम्।
पदार्थ-अदुवा-अथवा। अदिन्नादाणं-अदत्तादान-चोरी का भी दोष लगता है।
मूलार्थ-सचित्त जल का उपयोग करने वाले साधु को प्राणतिपात दोष के साथ अदत्तादान-चोरी का भी दोष लगता है।
हिन्दी-विवेचन
जैनागमों में साधु के लिए हिंसा एवं आरंभ-समारंभ का सर्वथा त्याग करने की