Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3
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माया-छल-कपट आदि कषायों का त्यागी है या निश्छल एवं निष्कपट (शुद्ध) हृदय वाला है, वही अनगार-मुनि कहा जाता है। हिन्दी-विवेचन
साधु, मुनि या अनगार जीवन क्या है? यह प्रश्न आज का नहीं, शताब्दियों एवं सहस्राब्दियों पहले का है। भगवान महावीर के युग में, महावीर के ही युग में नहीं, उससे भी पहले यह प्रश्न विचारकों के सामने चक्कर काटता रहा है, क्योंकि अनेकों व्यक्ति अपने आपको मुनि, त्यागी कहते रहे हैं। अतः त्यागी किसे समझा जाए, उसकी पहचान क्या है? उसका जीवन कैसा होना चाहिए? आदि प्रश्नों का उठना सहज-स्वभाविक है। .
प्रस्तुत सूत्र में इन्हीं प्रश्नों का गहन भाषा में समाधान किया गया है। अणगार की योग्यता को बताते हुए सूत्रकार ने तीन विशेषणों का प्रयोग किया है-1-संयम का परिपालक हो, 2-मोक्ष-मार्ग पर गतिशील हो और 3-माया रहित अर्थात् निश्छल एवं निष्कपट हृदय वाला हो। इन विशेषणों से युक्त साधक ही अनगार कहा जा सकता है।
प्रस्तुत सूत्र में एक बात ध्यान देने योग्य है। वह यह है कि यहां साधु के लिए प्रयुक्त होने वाले मुनि, यति, श्रमण, निर्ग्रन्थ आदि शब्दों का प्रयोग न करके अनगार शब्द का प्रयोग किया है। इसका कारण यह है कि साधना के पथ पर गतिशील होने वाले. साधक के लिए सब से पहले घर का त्याग करना अनिवार्य है। घर-गृहस्थ में रहते हुए वह सम्यक्तया साधुत्व की साधना-आराधना एवं परिपालना नहीं कर सकता। क्योंकि पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व से आबद्ध होने के कारण उसे न चाहते हुए भी आरंभ-समारंभ के कार्य में प्रवृत्त होना पड़ता है। आरंभ-समारंभ में प्रवृत्ति किए बिना गृहस्थ कार्य चल ही नहीं सकता और साधु-जीवन में आरंभ-समारंभ की क्रिया को जरा भी अवकाश नहीं है। अतः साधुत्व का परिपालन करने के लिए गृहस्थ जीवन का परित्याग करना अनिवार्य है। इसलिए सूत्रकार ने साधु के लिए प्रयुक्त होने वाले अन्य शब्दों का प्रयोग न करके अनगार शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि साधक साधु जीवन में प्रविष्ट होने के पूर्व घर एवं गृहस्थ-संबन्धी सावध कार्य पूर्णतया त्याग करे।