Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा
तृतीय उद्देशक
प्रथम अध्ययन के दूसरे उद्देशक में पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में बताया गया है। अब प्रस्तुत उद्देशक में अप्काय के संबन्ध में वर्णन किया गया है - जैसे दूसरे उद्देशक में पृथ्वीकाय सजीव है, उसमें स्थित जीवों को शस्त्र - प्रयोग से वेदना की अनुभूति होती है और उसका आरंभ समारंभ करने से कर्मबन्ध होता है और वह भविष्य में अहितकर और अबोध का कारण बनता है, उससे संसार बढ़ता है, इसलिए मुमुक्षु को उस आरंभ-समारंभ से दूर रहना चाहिए, आदि बातों को विस्तार से समझाया गया है । उसी तरह प्रस्तुत उद्देशक में अप्काय में भी चेतनता है और उसे भी शस्त्र आदि के संस्पर्श एवं प्रयोग से पीड़ा एवं वेदना की अनुभूति होती है आदि बातों का वर्णन किया जायगा। अप्काय के संबन्ध में कुछ बताने के पूर्व सूत्रकार भूमिका रूप से अप्कायिक जीवों का संरक्षण करने वाले अनगार - मुनि की योग्यता बताते हुए कहते हैं
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मूलम् - से बेमि जहा अणगारे उज्जुकडे नियायपडिवणे अमायं कुवमाणे वियाहि ॥19॥
छाया–तद् ब्रवीमि स यथा अणगारः ऋजुकृतः नियागप्रतिपन्नः अमायां कुर्वाणः व्याख्यातः ।
पदार्थ - से अणगारे - वह अणगार । जहा - जैसा होता है। सेबेमि- वह मैं कहता हूँ । उज्जुकडे - संयम का परिपालक । नियायपडिवण्णे - जिस ने मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर लिया है। अमायं कुव्वाणे- - माया - छल-कपट नहीं करने काला । वियाहिए - कहा गया है।
मूलार्थ - हे शिष्य ! अणगार - मुनि का जो वास्तविक स्वरूप है, वह मैं कहता हूं। जो प्रबुद्ध पुरुष संयम का परिपालक है, मोक्ष - मार्ग पर गतिशील है और