Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3
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शस्त्र का। समारम्भवेति-समारम्भ कराता है। तथा-उदय-सत्थं-अप्कायिक शस्त्र का। समारंभते-समारम्भ करते हुए। अण्णे-अन्य व्यक्तियों का। समणुजाणतिअनुमोदन-समर्थन करता है। तं-वह अप्कायिक समारम्भ। से-उस को। अहियाएअहितकर होता है। तं-वह। से-उसको। अबोहिए-अबोध का कारण होता है। से-वह। तं-इस विषय में। संबुज्झमाणे-संबुद्ध हुआ प्राणी। आयाणीयं-उपादेय ज्ञान-दर्शनादि से। समुट्ठाय-सम्यक्तया उठ कर या सावधान होकर। सोच्चासुनकर। भगवतो-भगवान से या। अणगाराणं-अणगारों के। अन्तिए-समीप से। इह-इस संसार में। एगेसिं-किसी-किसी व्यक्ति को। णायं-ज्ञात। भवति-होता है। खलु-निश्चय ही। एव-यह अप्कायिक समारम्भ। गंथ-अष्टविध कर्मों की गांठ है। एस खलु-यह निश्चय ही। मोहे-मोह का कारण है। एस खलु-यह निश्चय ही। मारे-मृत्यु का कारण है। एस खलु-यह निश्चय ही। णरए-नरक का कारण होने से नरक रूप है। इत्थं-इस प्रकार विषयों में। गड्ढिए लोए-मूर्छित लोक। जमिणं-इस अप्काय का। विरूविरूवेहि-अनेक तरह के। सत्थेहि-शस्त्रों से। उदयकम्मसमारभ्मेण-अप्कायिक कर्म के समारंभ से। उदयंसत्थं-अप्कायशस्त्र का। समारम्भमाणे-समारंभ-प्रयोग करते हुए। अण्णे-अन्य। अणेगवे-अनेक तरह के। पाणे-प्राणियों की। विहिंसई-विविध प्रकार से हिंसा करता है। से-अब। बेमि-कहता हूँ। पाणा-प्राणी। उदयनिस्सिया-अप्काय के आश्रित। अणेगेअनेक। जीवा-जीव। संति-विद्यमान हैं।
- मूलार्थ-आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू! अप्काय की हिंसा से लज्जा करने वाले प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ज्ञानी साधुओं को तू देख! और उनको भी देख, जो अपने आप को अनगार कहते या मानते हुए अप्कायिक जीवों का अनेक तरह से आरम्भ-समारम्भ करते हैं और अप्काय रूप शस्त्र का आरंभ-समारंभ करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा करते हैं। इसलिए भगवान ने अप्काय का आरंभ करने के संबन्ध में परिज्ञा का उपदेश दिया है, अर्थात् ज्ञ परिज्ञा से अप्काय के स्वरूप को जानकर, प्रत्याख्यान परिज्ञा से अप्कायिक आरंभ-समारंभ का त्याग करने की बात कही है।
प्रमादी एवं अज्ञानी जीव इस जीवन के निमित्त, प्रशंसा, मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा