Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध प्रश्न हो सकता है कि पृथ्वीकाय के जीव न देखते हैं, न सुनते हैं, न सूंघ सकते हैं, न चल सकते हैं, तो फिर वे किस तरह वेदना अनुभव करते हैं? सूत्रकार कुछ उदाहरण देकर इस प्रश्न का समाधान करते हैं। जैसे-कोई व्यक्ति जन्म से अंधा, बहरा, गूंगा और पंगु है, ऐसे व्यक्ति को कोई निर्दय पुरुष कुन्त के अग्रभाग से भेदन करता है, कोई अन्य शस्त्रों से उसका छेदन कराता है। वह व्यक्ति छेदन-भेदन के कार्य को न देख सकता है, न सुन सकता है और न आक्रन्दन ही कर सकता है और उस दुःख से बचने के लिए न वह कहीं भाग ही सकता है, तो क्या इससे यह समझ लिया जाए कि उसे वेदना की अनुभूति नहीं होती? नहीं, ऐसा नहीं होता, उसे वेदना का संवेदन तो होता है, परन्तु उसे वह अभिव्यक्त नहीं कर सकता। इसी तरह पृथ्वीकाय के जीवों को छेदन-भेदन की वेदना होती है, परन्तु उसे वे व्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि अपनी अनुभूति को व्यक्त करने का साधन उनके पास नहीं है। या यों कहिए कि उनकी चेतना अभी अव्यक्त या अविकसित है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि जहां चेतना है, वहां वेदना अवश्य होती है। अन्तर इतना ही है कि जिन प्राणियों में व्यक्त चेतना है उनकी वेदना व्यक्त दिखाई देती है और जिनमें चेतना अव्यक्त है उन की वेदना भी अव्यक्त रहती है। जैसे स्पष्ट दिखाई देने वाले प्राणियों में से यदि कोई व्यक्ति किसी प्राणी के पैर, गुल्फ, जानु, उरु, कमर, नाभि, उदर, पार्श्व, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधा, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, ठोड़ी, ओष्ट, दांत, जिह्वा, तालु, गाल, गण्ड, कर्ण, नासिका, आंख, भ्रू, ललाट, शिर आदि का छेदन-भेदन करे या किसी प्राणी को मार-पीट कर मूर्छित एवं प्राणों से रहित करे, तो उस प्राणी की वेदना प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। क्योंकि वह उसे दूसरों के सामने व्यक्त कर देता है। परन्तु उत्कट मोह और अज्ञान के कारण जिन्हें अव्यक्त चेतना मिली है, वे अपनी वेदना को अव्यक्त रूप से भोगते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों की चेतना भी अव्यक्त है, इसलिए उनकी वेदना की अनुभूति भी अव्यक्त ही होती है।
इससे यह स्पष्ट हुआ कि अनेक प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग करने से पृथ्वीकाय के जीवों को अव्यक्त रूप से वेदना होती है। अतः पृथ्वीकाय पर शस्त्र का प्रयोग करने से आरंभ होता है, वह आरंभ 27 प्रकार से किया जाता है और वह कर्मबन्ध का कारण है, इस सत्य से अज्ञानी जीव अपरिज्ञात रहते हैं।