Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मुनि का स्वरूप
जिसने अपने मन का गोपन कर लिया है अथवा जिसने मन को गपित कर लिया है, वह मुनि है और जिसने अभी तक मनोगुप्ति को नहीं साधा, वह मुनि नहीं है। इसी एक परीक्षा से बाकी सारी परीक्षाएँ हो जाती हैं। ___वर्तमान में केवल-ज्ञानी विद्यमान नहीं है कि हम कैसे जानें, किसका मन गुपित है। अतः वर्तमान में दोनों बातें होनी आवश्यक है, अर्थात् आगमों के अनुसार बाह्याचार और आन्तरिक साधना के माध्यम से जो मन का गोपन करता है, वही मुनि है।
मूलम्-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण माणण पूयणाए जाइमरण मोयणाए दुक्खपडिघायहेउं।
मूलार्थ-अनेक संसारी प्राणी जीवन को चिरकाल तक बनाए रखने, अर्थात् बहुत वर्षों तक जीवित रहने के लिए, यश-ख्याति पाने की इच्छा से; सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा पाने की अभिलाषा से; जन्म-मरण से मुक्ति के हेतु और दुःखों से . छुटकारा पाने की आकांक्षा से हिंसा आदि दुष्कृत्यों में प्रवृत्त होते हैं।
1. जीवन के लिए-व्यक्ति की जीने की आकांक्षा कि मैं जीवित रहूँ, इस आकांक्षा के वश वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। फिर भले ही उसे कितना भी बड़ा झूठ बोलना पड़े, किसी के शील का भंग करना पड़े या हिंसा करनी पड़े। क्योंकि उसके मन में सबसे बड़ी और गहरी से गहरी यह तृष्णा है कि मैं कैसे जीवित रहूँ। जीवित रहने के लिए वह मांसाहार करने के लिए भी तैयार हो जाता है, जीने के लिए अपने संबंधियों को छोड़ना भी पड़े तो तैयार रहता है। कितना बड़ा मोह है, उसे इस जीवन के लिए; क्योंकि उसे पता नहीं है कि मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है। वास्तव में तो प्रत्येक आत्मा अजर और अमर है, परन्तु देहाध्यास के कारण जीवन के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति है। _____ संथारा क्या है-इस गहरी से गहरी आसक्ति से उपर उठना है, क्योंकि मैं कैसे जिन्दा रहूँ, यह आसक्ति कर्मबन्ध का मूल है। मिथ्यात्व के कारण देहाध्यास है या यों कहें कि देहाध्यास ही मिथ्यात्व है।