Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
97
प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2
छाया - आर्तः लोकः परियूनः (परिजीर्णः) दुस्संबोधः अविज्ञायकः अस्मिन् लोके प्रव्यथिते तत्र तत्र पृथक् पश्य आतुराः परितापयन्ति ।
पदार्थ - अट्टे - आर्त-पीड़ित । परिजुण्णे - प्रशस्त ज्ञानादि से हीन । दुस्संबोहेकठिनता से बोध प्राप्त करने वाले । अविजाणए - विशिष्ट बोध - रहित । पव्वहिएविशेष पीड़ित । अस्सिं लोए - इस पृथ्वीकाय लोक में । तत्थ - तत्थ - खनन आदि उन-उन। पुढो - भिन्न-भिन्न कारणों के उत्पन्न होने पर । परितावेंति - पृथ्वीका के जीवों को परिताप देते हैं । पास - हे शिष्य ! तू देख ।
मूलार्थ - आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! विषय - कषायादि क्लेशों से पीड़ित, ज्ञान- विवेक से रहित दुर्लभ - बोधि प्राणी इन व्यथित, पीड़ित एवं दुःखित पृथ्वीकायिक जीवों को खान खोदने आदि अनेक तरह के कार्यों के लिए परिताप देते हैं, उन्हें विशेष रूप से संतप्त करते हैं, दुःख एवं संक्लेश पहुंचाते हैं।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र का पिछले सूत्र के साथ क्या संबन्ध है, यह हम द्वितीय उद्देशक की भूमिका में स्पष्ट कर चुके हैं । परन्तु इस सूत्र का पिछले उद्देशक के साथ परंपरागत संबन्ध भी है। वह इस प्रकार है- आचारांग सूत्र के आरंभ में कहा गया है कि इस संसार में किन्हीं जीवों को संज्ञा - ज्ञान या सम्यग् बोध नहीं होता । क्यों नहीं होता, इसका समाधान प्रस्तुत सूत्र में दिया गया है । “अट्टे लोए..." इत्यादि पदों का तात्पर्य यह है
आर्त-आर्त शब्द का सामान्य अर्थ पीड़ित होता है या बाह्य दुःखों एवं आपत्तियों से अवेष्टित व्यक्ति को भी आर्त कहते हैं । परन्तु यहां राग-द्वेष एवं कषायों से आवृत, विषय-वासना के दलदल में फंसे हुए व्यक्ति को, प्राणी को आर्त कहा है। क्योंकि विषय-कषाय एवं राग-द्वेष के वशीभूत हुआ आत्मा अपने हिताहित को भूल जाता है और नानाविध पाप कार्यों में प्रवृत्त होकर कर्मों का बन्ध करता है और
→ चाहिए, परन्तु सिद्धांत-शैली के कारण यहां एक वचन के स्थान पर बहुवचन दोषावह नहीं है।