Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
परिणाम-स्वरूप जन्म-जरा और मरण के प्रवाह में प्रवहमान होता हुआ दुःख एवं पीड़ा का संवेदन करता है। इसलिए क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, विषय-विकार तथा दर्शन और चारित्र मोहनीय कर्म से युक्त समस्त संसारी जीव 'आर्त' कहे जाते हैं। क्योंकि वे इन दुष्कर्मों से युक्त होकर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं, रात-दिन जन्म-मरण के जाल में उलझे रहते हैं।
लोक-लोक क्या है? एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के समस्त गतियों एवं योनियों के जीवों के समूह को लोक कहते हैं।
परियून-जो जीव औपशमिक आदि प्रशस्त परिणामों से रहित हैं और मोक्ष-मार्ग में सहायक साधनों से दूर हैं, उन अज्ञानी जीवों को ‘परिजुण्णे-परियून' शब्द से अभिव्यक्त किया है। परिदयून के भी द्रव्य और भाव दो भेद किए गए हैं। द्रव्य परियून के सचित्त और अचित्त के भेद से दो प्रकार हैं। जीर्ण-शीर्ण शरीर या परिजीर्ण वृक्ष को सचित्त परियून और पुराने वस्त्र आदि को अचित्त परियून कहा है और औदयिक भाव से युक्त प्राणी में जो प्रशस्त ज्ञान या सम्यग्ज्ञान के अभाव को भाव परियून कहा है। __यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि आत्मा उपयोग लक्षण वाला है। उसमें ज्ञान का कभी भी सर्वथा लोप नहीं होता। अतः प्रस्तुत प्रकरण में जो ज्ञान का अभाव कहा गया है, वह प्रशस्त सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा से समझना चाहिए, न कि ज्ञान-मात्र की अपेक्षा से। क्योंकि एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी प्राणियों में ज्ञान का अस्तित्व रहता ही है। यह बात अलग है कि कुछ जीवों में उसका अपकर्ष दिखाई देता है, तो कुछ में उत्कर्ष । क्योंकि ज्ञान का विकास क्षयोपशम पर आधारित है। ज्ञानावरणीय कर्म का जितना अधिक क्षयोपशम होगा आत्मा में उतना ही ज्ञान का उत्कर्ष दिखाई देगा और ज्ञानावरणीय कर्म जितना अधिक उदयभाव में होगा, उतना ही अधिक ज्ञान का अपकर्ष परिलक्षित होगा। इसलिए भाव परियून शब्द के अर्थ में जो प्रशस्त ज्ञान का अभाव बताया गया है, वह सापेक्ष दृष्टि से समझना चाहिए।
ज्ञान का सब से अधिक उत्कर्ष मनुष्य-जीवन में परिलक्षित होता है और अधिक अपकर्ष एकेन्द्रिय जीवों में और उनमें भी सूक्ष्म निगोद के जीवों में दिखाई देता है।