Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मल्लि राजकुमारी ने अपने आकार की एक स्वर्णमयी पुतली बनवाई और छहों राजकुमारों को बुलाकर उन्हें संसार का स्वरूप समझाकर तथा अपनी पूर्वभव सम्बन्धी मित्रता का परिचय देकर प्रबोधित किया। राजकुमारी के उपदेश से छहों राजकुमार अपने स्वरूप का चिन्तन करने लगते हैं और फलस्वरूप उन्हें जाति-स्मरणज्ञान हो जाता है। इस तरह तीर्थंकर भगवान के अतिरिक्त अन्य अतिशय ज्ञानी के उपदेश से भी प्राप्त होनेवाले पूर्वभव के ज्ञान के अनेकों उदाहरण आगमों में मिलते हैं। अस्तु, यह साधन भी ज्ञान-प्राप्ति में कारण है।
'सोऽहम्' पद का अर्थ होता है-वह मैं हूँ। पहले बताया जा चुका है कि सन्मति या स्वमति, पर-व्याकरण और परेतर-उपदेश इन तीनों कारणों से कई जीवों को यह. बोध प्राप्त होता है कि द्रव्य एवं भाव दिशा-विदिशाओं में भ्रमण करने वाला यह मेरा आत्मा ही है। 'सः' से पूर्वादि दिशाओं में भ्रमणशील इस अर्थ का बोध होता है और 'अहम्' पद 'मैं' अर्थ का परिचायक है। 'सः+अहम्' दोनों पदों का संयोग करने से 'सोऽहम्' बनता है और उसका अर्थ होता है-दिशा-विदिशाओं में भ्रमणशील वह मैं ही हूँ। इसी भाव को सूत्रकार ने 'सोऽहम्' शब्द से अभिव्यक्त किया है।
_ 'सोऽहम' में पठित 'सः और अहम' दोनों पदों को आगे-पीछे करने से एक अभिनव अर्थ का भी बोध होता है। वह इस प्रकार है- 'अहं सः' का अर्थ है, मैं वह हूँ और ‘सोऽहम्' शब्द का अर्थ है, वह मैं हूँ। दोनों अर्थों को संकलित करने पर 'फलितार्थ यह निकलता है कि 'जो मैं हूँ वही वह है और जो वह है वही मैं हूँ।' इस फलितार्थ से आत्मा और परमात्मा के अभेद का बोध होता है। प्रस्तंत प्रसंग में 'सः' शब्द से समस्त कर्म-बन्धन से रहित, स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित सिद्ध भगवान की आत्मा का ग्रहण किया गया है और 'अहम्' पद कर्मों से आबद्ध संसारी आत्मा का परिचायक है। शुद्ध आत्मस्वरूप की अपेक्षा से दोनों एक समान गुण वाले हैं। अन्तर है तो केवल इतना ही कि एक तो (सिद्ध भगवान) सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की उत्कट साधना से समस्त कर्म बन्धनों को तोड़कर जन्म-जरा और मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो गए हैं, कर्म एवं कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा पा चुके हैं और दूसरे (संसारी जीव) कर्म-बन्धन से आबद्ध हैं, ऊर्ध्व एवं अधोगति में परिभ्रमणशील हैं। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि सिद्ध कर्ममल से रहित हैं और संसारी आत्माएं अभी तक कर्ममल युक्त हैं। परंतु कर्मबन्ध से रहित और कर्मबन्ध सहितं जीवों के