Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
संसार-परिभ्रमण के दुःखों से बचने के लिए साधक को कर्म-बन्धन की कारणभूत क्रियाओं के संबन्ध में परिज्ञा-विवेक रखना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में विवेक का तात्पर्य है-सर्व प्रथम कर्म-बन्धन की हेतुभूतक्रियाओं के स्वरूप को समझना और तदनन्तर उनका परित्याग करना।
'तत्थ' इस पद की व्याख्या करते हुए आचार्य शीलांक कहते हैं
“तत्र कर्मणि व्यापारे अकार्षमहं, करोमि करिष्यामित्यात्मपरिणतिस्वभावतया मनोवाक्कायव्यापाररूपे।"
अर्थात्-'तत्र' शब्द-मैंने किया, मैं कर रहा हूँ और मैं करूंगा, इस प्रकार की आत्म-परिणति के स्वभाव से होने वाले मन, वचन और काया के व्यापार का बोधक है। सामान्यतया यह व्यापार त्रिविध होता है, किन्तु यह कृत, कारित और अनुमोदित से संबद्ध होने के कारण नव प्रकार का बन जाता है और उक्त भेदों को भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों से संबन्धित कर लेने पर इनकी संख्या 27 हो जाती है। इन सब भेदों का वर्णन पिछले सूत्र में किया जा चुका है। अस्तु 'तत्र' शब्द को क्रिया के 27 भेदों का परिचायक समझना चाहिए। और मुमुक्षु को इन सभी व्यापारों में विवेक रखना चाहिए।
. 'भगवता परिण्णा पवेइया' प्रस्तुत वाक्य में प्रयुक्त ‘परिण्णा' शब्द परिज्ञा का परिबोधक है। परिष्कृत और प्रशस्त ज्ञान का नाम परिज्ञा है। यह 'ज्ञ परिज्ञा' और 'प्रत्याख्यान परिज्ञा' के भेद से दो प्रकार की है। ज्ञ परिज्ञा से कर्मबन्ध की हेतुभूत क्रिया का बोध होता है और प्रत्याख्यान परिज्ञा से आत्मा क्रिया का परित्याग करता है। ___ज्ञ परिज्ञा ज्ञान प्रधान है और प्रत्याख्यान परिज्ञा त्याग प्रधान है। इस तरह परिज्ञा से कर्मबन्ध की हेतुभूत क्रिया के स्वरूप को जान समझ कर एवं त्यागकर साधक संसार से मुक्त होने का प्रयत्न करता है। इस पर एक प्रश्न पूछा जा सकता है कि जब व्यक्ति परिज्ञा द्वारा संसार-परिभ्रमण के कारणभूत क्रियाओं के स्वरूप को जान लेता है तब फिर वह कर्मास्रव की कारण रूप क्रियाओं के व्यापार में क्यों प्रवृत्त होता है? पाप एवं दुष्कृत्य करने को क्यों तत्पर होता है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं