Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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अध्यात्मसार: 1
मूलम्-अकरिस्सं चऽहं, कारवेसु, चऽहं, करओ आवि समणुन्ने भविस्सामि॥7॥
मूलार्थ-मैंने किया था, मैं कराता हूँ और करने वाले अन्य व्यक्तियों का मैं अनुमोदन-समर्थन करूंगा।।
यह ध्यान का सूत्र है-क्रियाएं भिन्न-भिन्न हैं। समय-सापेक्ष हैं। लेकिन कर्ता एक ही है और वह समय-निरपेक्ष है। जो कर्ता है, वह वही है, केवल क्रियाएं बदलती रहती हैं और जैसा कर्ता होगा, वैसी ही क्रियाएं होंगी। अतः केवल क्रियाओं को बदलने से कर्ता नहीं बदलता। कर्ता का जो भ्रम है, कर्ता के दृष्टिकोण में जो मिथ्याभाव है, वह जब तक नहीं हटेगा, तब तक क्रियाएँ नहीं बदलतीं। इसी अपेक्षा से आत्मबोध की प्रमुखता है। यह ध्यान का सूत्र है। यह जो कर्ताभाव है कि मैंने किया था, मैं कर रहा हूँ, मैं अनुमोदन कर रहा हूँ, यह बन्धन का कारण है।
जब आत्मभाव का जन्म होता है, तब वैदेही अवस्था का बोध होता है। तब पता चलता है कि मेरी आत्मा कुछ भी करने वाली नहीं है। आत्मा का मूल गुण ज्ञान
और दर्शन है। इसको हम स्वरूपबोध में भी ले सकते हैं कि जिसको स्वरूप का बोध होता है, उसे यह समझ में आ जाता है कि मेरा स्वभाव कुछ करने का या कर्ताभाव का नहीं, अपितु केवल ज्ञायक भाव है। ___ कई विचारक ऐसा भी सोचते हैं कि मैं तो कुछ करने वाला नहीं हूँ और सब कुछ करते हुए भी मैं ज्ञाता-द्रष्टा भाव में हूँ। अतः मुझे कोई बंधन नहीं है, परन्तु यह भी एक बन्धन ही है। वह ज्ञाता द्रष्टा भाव नहीं है, वह भी कर्ताभाव ही है कि मैं ज्ञाता हूँ।
यह बोध ज्ञाता-द्रष्टा भाव तब तक जागृत नहीं होता, जब तक आत्म-बोध नहीं होता और इस आत्मबोध के लिए ही बाह्याचार एवं आन्तरिक साधना आवश्यक है। आत्मबोध के पश्चात् ही ज्ञाता-भाव जागृत होता है।
मूलम्-अपरिण्णायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ, अणुदिसाओ अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ, सव्वाओ अणुदिसाओ सहिति । अणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेह॥9॥