Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार क्रियाओं की इयत्ता - परिमितता बताते हुए कहते हैं
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मूलम् - एयावंती सव्वावंती लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति ॥12॥
छाया - एतावन्तः सर्वेलोके कर्म समारम्भाः परिज्ञातव्या भवन्ति ।
पदार्थ - लोगंसि - लोक में । एयावंती - इतने ही । सव्वावंती - सर्वं । कम्मसमारम्भा - कर्म-सम्भारम्भ क्रिया-विशेष । परिजाणियव्वा - परिज्ञातव्य - जानने योग्य । भवंति - होते हैं ।
मूलार्थ - समस्त लोक में कर्म-बन्धन की हेतुभूत इतनी ही क्रियाएं होती हैं- जितनी पूर्व सूत्र में बताई गई हैं (27 क्रियाएं) । न इस से अधिक होती हैं और न कम, ऐसा समझना चाहिए ।
हिन्दी - विवेचन
क्रिया के स्वरूप एवं भेदों का वर्णन पहले किया जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि कर्मबन्धन की हेतुभूत जितनी क्रियाएं बताई गई हैं, संसार में उससे न्यूनाधिक क्रियाएं नहीं हैं । प्रस्तुत सूत्र में दृढ़ता के साथ पूर्व सूत्रों में वर्णित विषय का समर्थन किया गया है और साधक को प्रेरित किया गया है कि वह क्रियाओं के वास्तविक स्वरूप को समझकर उसमें विवेकपूर्वक गति करे, अर्थात् पहले हेय - उपादेय का भेद करके हेय को सर्वथा त्यागकर साधना में तेजस्विता लाने वाली, साध्य के निकट पहुंचाने वाली उपादेय क्रियाओं को स्वीकार करे और यथासमय उनका भी यथाशक्य त्याग करता हुआ एक दिन क्रिया मात्र का परित्याग करने, अशुभ का ही नहीं, संपूर्ण शुभ प्रवृत्तियों से भी निवृत्त बने । इसी लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि कर्म-बन्ध की हेतुभूत इतनी ही क्रियाएं हैं। साधक को इनका परिज्ञान होना चाहिए। क्योंकि ज्ञान होने पर ही साधक उनसे विरत हो सकेगा, अतः उनके स्वरूप आदि का वर्णन करके सूत्रकार उन क्रियाओं से विरत होने का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
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