Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
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होती है। अन्य इन्द्रियाँ कुछ ही प्राणियों को होती हैं । जैसे- नारक तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के श्रोत्र इन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय, घ्राण इन्द्रिय, रसना इन्द्रिय और स्पर्श इन्द्रियाँ होती हैं । परन्तु चतुरिन्द्रिय जीवों के श्रोत्र इन्द्रिय नहीं होती, त्रीन्द्रिय जीवों के श्रोत्र और चक्षु इन्द्रिय नहीं होती, द्वीन्द्रिय जीवों के श्रोत्र, चक्षु और घ्राण इन्द्रिय नहीं होती, और एकेन्द्रिय जीवों के केवल स्पर्श इन्द्रिय ही होती है । अन्य इन्द्रियाँ नहीं होतीं । इससे स्पष्ट हो गया कि अन्य इन्द्रियाँ कई जीवों में होती हैं और कई जीवों में नहीं भी पाई जातीं, परन्तु स्पर्श इन्द्रिय संसार के सभी जीवों को प्राप्त है और अन्य इन्द्रियाँ स्पर्श के आश्रित हैं इसलिए स्पर्श इन्द्रिय के आश्रित दुःखों एवं संक्लेशों के संवेदन का उल्लेख किया गया और इससे सभी इन्द्रियों के द्वारा संवेदित दुःख को समझ लेना चाहिए ।
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' संधेइ' इस पाठ के स्थान पर कई प्रतियों में 'संधावइ' (संधावति) पाठ भी उपलब्ध होता है । 'संधेइ' का अर्थ है - प्राप्त करता है और 'संधावर' का अर्थ होता है - बार-बार गमन करता है ।
प्रस्तुत सूत्र में इस बात का उल्लेख किया गया है कि अपरिज्ञातकर्मा पुरुष (आत्मा) अनेक योनियों में परिभ्रमण करता है अनेक और विविध दुःखों का संवेदन करता है । योनि-भ्रमण और दुःखों से छुटकारा पाने के लिए जिस विवेक एवं साधना की आवश्यकता होती है, उसी का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइया॥10॥
छाया - तंत्रं खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता ।
पदार्थ - तत्थ - इन कर्म समारम्भों के विषय में । खलु - निश्चय ही । भगवताभगवान ने । परिण्णा - परिज्ञा, विवेक का । पवेइया - उपदेश दिया है।
मूलार्थ - कर्म-बन्धन की कारणभूत क्रियाओं के संबन्ध में भगवान महावीर ने परिज्ञा-विवेक का उपदेश दिया है ।
हिन्दी - विवेचन
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यह हम पहले बता चुके हैं कि जीवन में ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है । क्योंकि ज्ञान प्रकाश है, आलोक है। उसके उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं महोज्ज्वल प्रकाश में