Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम्-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण माणण पूयणाए जाइमरण मोयणाए दुक्खपडिघायहेउं॥11॥
छाया-अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनाय जातिमरण-मोचनाय दुःखप्रतिघातहेतुम्।
पदार्थ-इमस्स चेव जीवियस्स-इस जीवन के लिए। परिवंदण-माणणपूयणाए-परिवन्दन-प्रशंसा, सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा के लिए। जाइ-मरणमोयणाए-जन्म, मरण और मुक्ति लेने के लिए। दुक्ख-पडिघायहेउ-दुःखों से छुटकारा पाने के लिए कुछ जीव पाप क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं।
मूलार्थ-अनेक संसारी प्राणी जीवन को चिरकाल तक बनाए रखने के लिए, अर्थात् बहुत वर्षों तक जीवित रहने के लिए, यश-ख्याति पाने की इच्छा से, सत्कार
और पूजा-प्रतिष्ठा पाने की अभिलाषा से, जन्म-मरण और मुक्ति के हेतु, दुःखों से छुटकारा पाने की आकांक्षा से हिंसा आदि दुष्कृत्यों में प्रवृत्त होते हैं। .. हिन्दी-विवेचन
प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है, मरना कोई नहीं चाहता। सब प्राणियों को जीवन प्रिय है। प्रत्येक प्राणी अपने जीवन को बनाये रखने का यथासंभव प्रयत्न करता है। अपने आपको लम्बे समय तक जीवित रखने के लिए वह उचित एवं अनुचित कार्य का तथा पाप-पुण्य का जरा भी ध्यान नहीं करता। इस तरह जीवन को स्थायी बनाए रखने की झूठी लालसा या मृगतृष्णा के पीछे वह अनेक पाप कार्यों में प्रवृत्त होता है।
और इसका मुख्य कारण है-नश्वर जीवन के प्रति प्राणी की मोहजन्य आसक्ति, ममता एवं मूर्छा।
प्रस्तुत सूत्र में पाप-प्रवृत्ति में प्रवृत्त होने के आठ कारण बताए हैं-1-जीवन, 2-परिवन्दन, प्रशंसा, 3-मान-सत्कार, 4-पूजा-प्रतिष्ठा, 5-जन्म, 6-मरण, 7-मुक्ति और 8-दुःखों का प्रतिकार।
1. जीवन-संसार में प्रत्येक प्राणी को एक-दूसरे का सहारा-सहयोग अपेक्षित है। बिना सहयोग के अकेला प्राणी निर्बाध गति से जीवन यात्रा नहीं कर सकता है। इसलिए जीव का कार्य रूप से लक्षण बताते हुए आचार्य उमास्वाति ने कहा-"एक-दूसरे