Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वर्तमान काल एक समय का है, दूसरे समय ही वह भूत काल हो जाता है, इस तरह अनन्त-अनन्त काल वर्तमान काल पर्याय में से अतीत काल की संज्ञा में परिवर्तित हो चुका है और अनागत काल का आने वाला प्रत्येक समय क्रमशः वर्तमान काल की पर्याय को स्पर्श करता हुआ अतीत की स्मृति में विलीन हो रहा है। संसार में अनन्त-अनन्त काल से ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। क्योंकि अतीत और अनागत काल अनन्त हैं और अनन्त का कभी अन्त नहीं आता। अतः अनन्त भवों के अनन्त काल का भी संसार में परिभ्रमणशील आत्मा से संबन्ध रहा है। जैसे शरीर की बदलती हुई बाल, यौवन एवं वृद्ध अवस्थाओं में आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। उसी तरह अनेक योनियों में परिवर्तित विभिन्न शरीरपर्यायों में भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है।
वर्तमान की स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि अनन्त काल में किये हुए अनन्त भवों में आत्मा का अस्तित्व रहा है। इससे अनन्त-अनन्त काल के साथ एक धारा-प्रवाह के रूप में एकरूपता स्पष्ट प्रतीत होती है। हम यह देखते हैं कि वर्तमान भव में आत्मा का शरीर के साथ संबन्ध जुड़ा हुआ है। इस से हम यह भली-भांति जान सकते हैं कि इस भव के पूर्व भी आत्मा का किसी अन्य शरीर के साथ संबन्ध था और भविष्य में भी जब तक यह आत्मा संसार में परिभ्रमण करती रहेगी, तब तक किसी-न-किसी योनि के शरीर के साथ इसका संबन्ध रहेगा ही। इससे त्रिकालवर्ती अनन्त काल एवं अनन्त भवों के धारा-प्रवाहिक संबन्ध तथा विभिन्न काल एवं भवों में परिवर्तित अवस्थाओं में भी आत्मा का शुद्ध स्वरूप स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है। इस तरह सूत्रकार ने त्रिकालवर्ती क्रियाओं और आत्मा के घनिष्ठ संबन्ध को स्पष्ट करने की दृष्टि से क्रियावाद के द्वारा आत्मवाद की स्थापना की है।
प्रस्तुत सूत्र में क्रिया के 27 भेदों का विवेचन किया गया है। ये क्रियाएं इतनी ही हैं, न इनसे कम हैं और न अधिक हैं और ये क्रियाएं कर्म-बन्धन का कारण भी हैं। अतः इस बात को सम्यक्तया जान कर इनसे बचना चाहिए या इनका परित्याग करना चाहिए। इसी बात का निर्देश सूत्रकार ने आगे के सूत्र में इस प्रकार किया है