Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
किए हैं और तदनन्तर दोनों के अठारह-अठारह भेद किए हैं। अठारह द्रव्य दिशाओं का वर्णन इस प्रकार किया है___ पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चार दिशाएं हैं। इन चारों के अंतराल में चार विदिशाएं हैं। चार दिशा और चार विदिशा इन आठ के मध्य में आठ और अंतर हैं। इस प्रकार ये सोलह दिशाएं बनती हैं और उक्त 16 में ऊर्ध्व और अधो दिशा, ये दो दिशाएं मिला दें तो कुल अठारह दिशाएं बनती हैं। ये समस्त द्रव्य दिशाएं हैं।
नियुक्तिकार ने भाव दिशाएं भी 18 बताई हैं। मनुष्य, तिर्यञ्च, काय, वनस्पति देव और नारक इनकी अपेक्षा से भाव दिशा के 18 भेद किए हैं। यथा-मनुष्य चार प्रकार के हैं-1. सम्मूर्छिम मनुष्य, 2. कर्मभूमि मनुष्य, 3. अकर्मभूमि मनुष्य और 4. अंतर्दीपज मनुष्य। तिर्यञ्च के भी 4 भेद होते हैं = 1. द्वीन्द्रिय, 2. त्रीन्द्रिय, 3. चतुरिन्द्रिय और 4. पञ्चेन्द्रिय । काय के भी चार भेद हैं-1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 5. तेजस्काय और 4. वायुकाय। वनस्पति भी चार तरह की होती है-1. अग्रबीज, 2. मूलबीज, 3. स्कंधबीज और पर्वबीज । इस तरह चतुर्विध मनुष्य, चतुर्विध तिर्यञ्च, चतुर्विध काय और चतुर्विध वनस्पति कुल मिलाकर 4 + 4 + 4 + 4 = 16 भेद हुए
और उक्त सोलह में 1: नारक और 2. देव मिलाने से 18 भेद होते हैं। इन सबको भाव-दिशा कहा है। इसका तात्पर्य इतना ही है कि कर्मों से आबद्ध जीव इन्हीं योनियों में यत्र-तत्र परिभ्रमण करता रहता है। इसलिए इनको भाव-दिशा कहा है।' _ 'अण्णयरीओ वा दिसाओ' का अर्थ है-अन्यतर दिशा से। इसका तात्पर्य इतना
1. जत्य य जो पण्णवओ, कस्स वि साहइ दिसासु य णिमित्तं ।
जत्तोमुही य ठाई सा पुव्वा पच्छओ अवरा ॥ दाहिण-पासमि उ दाहिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं। एयासिमन्तरेणं अण्णा चत्तारि विदिसाओ॥ एयासिं चेव अट्ठण्हमंतरा अट्ट हुँति अण्णाओ। सोलस-सरीर उस्सय बाहल्ला सववतिरिय दिसा॥ हेट्ठापायतलाणं अहोदिसा सीसउवरिया उड्डा।
एया अट्ठारसवि, पण्णवादिसा मुणेयव्वा॥ -आचारांग नियुक्ति, गाथा 51-54 2. मणुया तिरिया काया तहग्गबीया चउक्गगा चउरो।
देवा नेरइया वा अट्ठारस होंति भावदिसा॥ -आचारांग नियुक्ति गाथा, 60