Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
से लेकर केवलज्ञान तक के सभी ज्ञान आत्मज्ञान में समाविष्ट हो जाते हैं। परन्तु सूत्रकार को यह सामान्य अर्थ इष्ट नहीं है। वह यहां आत्म-ज्ञान से सामान्य मति एवं श्रुत ज्ञान को आत्म-ज्ञान के रूप में नहीं स्वीकार करते। क्योंकि साधारणतः ये दोनों ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रखते हैं। इसी कारण इन्हें परोक्ष ज्ञान माना है। परंतु विशिष्ट ज्ञान इन्द्रिय और मन के सहयोग की अपेक्षा नहीं रखते। जहाँ इन्द्रिय की पहुंच नहीं है या उनमें जहां कि रूप आदि को देखने-सुनने की शक्ति नहीं है, जातिस्मरण, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान से उन पदार्थों को भी आत्मा जान-देख लेता है। जातिस्मरण ज्ञान से आत्मा आंख आदि इन्द्रियों की सहायता के बिना केवल आत्मा के शुद्ध अध्यवसायों से अपने संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के किए गए पूर्व भवों का बिना किसी बाधा के अवलोकन कर लेता है। इसलिए 'स्वमति' से विशिष्ट ज्ञानों को ही स्वीकार किया जाता है। उक्त ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थों का परिज्ञान करने में इन्द्रिय एवं मन की सहायता नहीं लेनी पड़ती, इसी कारण इन विशिष्ट ज्ञानों को प्रत्यक्ष या आत्म-ज्ञान कहते हैं। प्रस्तुत ज्ञान से ही आत्मा को अपने स्वरूप का एवं मैं किस गति एवं दिशा-विदिशा से आया हूँ, इत्यादि बातों का बोध होता है।
'सह संमइयाए' इस वाक्य में व्यवहृत 'सह' शब्द संबंध का बोधक है। इस शब्द से आत्मा और ज्ञान का तादात्म्य संबंध अभिव्यक्त किया गया है। ऐसे प्रायः सभी दार्शनिक आत्मा में ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, परन्तु उसका आत्मा के साथ क्या सम्बन्ध है, इस मान्यता में सभी दार्शनिकों में एकमत नहीं है। वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आत्मा से सर्वथा पृथक् मानता है। वह कहता है कि 'आत्मा आधार है और ज्ञान आधेय है। ज्ञान गुण और आत्मा गुणी है। अतः वह आत्मा में समवाय-संबंध से रहता है। क्योंकि ज्ञान पर पदार्थ से उत्पन्न होता है। जैसे-घट के सामने आने पर आत्मा का घट से संबंध होता है, तब आत्मा को घट का ज्ञान होता है और घट के हटते ही ज्ञान भी चला जाता है। इस तरह ज्ञान पर-पदार्थ से उत्पन्न होता है और समवाय-संबंध से आत्मा के साथ सम्बन्धित होता है। इस तरह वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आत्मा से पृथक् मानता है, पर-पदार्थ से उत्पन्न होने वाला स्वीकार करता है। ___ परन्तु जैनदर्शन ज्ञान को आत्मा का गुण मानता है और उसे आत्मा का स्वभाव या धर्म मानता है और यह भी स्वीकार करता है कि प्रत्येक आत्मा में अनंत ज्ञान