Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
ताकत बहुत कम रह जाती है । परन्तु आत्मा में ज्ञान का सर्वथा अभाव कभी नहीं होता । उसकी थोड़ी-बहुत झलकं पड़ती ही रहती है । अनन्त काल के लम्बे एवं विस्तृत जीवन में एक भी समय ऐसा नहीं आता कि ज्ञानदीप सर्वथा बुझ जाए। इसी कारण उसका लक्षण उपयोग बताया गया है, क्योंकि वह सदा-सर्वदा आत्मा में रहता है और आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। यह बात अलग है कि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय एवं क्षयोपशम के कारण आत्मा में इसका अपकर्ष एवं उत्कर्ष होता रहता है। जब ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होता है, तब इसका अपकर्ष दिखाई देता है। इसी बात को सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में दिखाया है कि ज्ञान का अधिक भाग प्रच्छन्न हो जाने के कारण कई जीवों को इस बात का परिबोध नहीं . होता कि मैं पूर्व दिशा से आया हूँ या पश्चिम आदि दिशा - विदिशाओं से आया हूँ ।
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'दिसाओ' इस पद का अर्थ है - दिशाएं। दिशाएं तीन प्रकार की होती हैं1. ऊर्ध्वदिशा, 2. अधोदिशा और 3. तिर्यदिशा । ऊपर की ओर को ऊर्ध्वदिशा, नीचे की ओर को अधोदिशा और इन उभय दिशाओं के मध्य भाग को तिर्यग्दिशा कहते हैं । तिर्यदिशा - पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा के भेद से चार प्रकार: की हैं। जिस ओर से सूर्य उदित होता है, उसे पूर्वदिशा कहते हैं । जिस ओर सूर्य अस्त होता है, उसे पश्चिमदिशा कहते हैं । सूर्य के सम्मुख खड़े होने से बाएँ हाथ की ओर उत्तर दिशा है और दाहिने हाथ की तरफ दक्षिण दिशा है ! इस तरह ऊर्ध्व और अधोदिशा में उक्त चार तिर्यग दिशाओं को मिला देने से 6 दिशाएं होती हैं। इसके अतिरिक्त चार विदिशाएं भी होती हैं, जिन्हें सूत्रकार ने 'अणुदिसाओ' पंद से अभिव्यक्त किया है, जिन्हें 1. ईशान कोण, 2. आग्नेय कोण, 3. नैर्ऋत्य कोण और 4, वायव्य कोण कहते हैं। उत्तर और पूर्वदिशा के बीच के कोण को ईशान कोण कहते हैं । पूर्व एवं दक्षिण दिशा के बीच का कोण आग्नेय कोण के नाम से जाना-पहचाना जाता है । दक्षिण और पश्चिम का मध्य कोण नैऋत्य कोण के नाम से प्रसिद्ध है और पश्चिम तथा उत्तर दिश के बीच का कोण वायव्य कोण के नाम से व्यवहृत है । मेरु पर्वतको केन्द्र मानकर इन सभी दिशा - विदिशाओं का व्यवहार किया जाता है। इस तरह ऊर्ध्व और अधो दिशा, चार तिर्यग् दिशाएं और चार विदिशाएं कुल मिलकर 2 + 4 + 4 = 10 होती हैं । परंतु नियुक्तिकार ने इस मान्यता से अपना भिन्न मत भी उपस्थित किया है। उन्होंने सर्वप्रथम दिशा के द्रव्य और भाव दिशा ये दो भेद